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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या
करता है; वस्तु में अवस्थित नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् आदि परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय करता है ।
यदि अनेकान्तवाद के शाब्दिक अर्थ पर ही ध्यान दिया जाय तो यह बात और भी स्पष्ट हो जायेगी। जैन दर्शन के अनुसार अनेकान्तवाद शब्द में अनेक + अन्त + वाद इन तीन शब्दों का संयोग है । जिसमें अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ है धर्म या गुण । इस आधार पर अनेकान्त का अर्थ होगा एक हो वस्तु का अनेक धर्मयुक्त होना । अष्टसाहस्री' में अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वस्तु में न सर्वथा सत्त्व है और न सर्वथा असत्त्व, न सर्वथा नित्यत्व है और न सर्वथा अनित्यत्व | किन्तु किसी अपेक्षा से उसमें सत्व है तो किसी अपेक्षा से असत्त्व, किसी अपेक्षा से नित्यत्व है तो किसी अपेक्षा से अनित्यत्व; सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि सर्वथा एकान्तों के अस्वोकृति अथवा प्रतिवाद का नाम ही अनेकान्त है ।
धवला में, अनेकान्त किसको कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप कहा गया है "जच्चंत रत्तं" अर्थात् जात्यन्तर भाव को अनेकान्त कहते हैं अनेक धर्मों के एक रसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तर भाव उत्पन्न होता है. वही अनेकान्त शब्द का अर्थ है । सप्तभंगी तरंगिणोर भी अनेकान्त को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित करती है - "जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुण रूप अनेक अन्त या धर्म हैं वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता ।" इसी प्रकार डॉ० रतन चन्द अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते कि अनेकान्त शब्द में "अन्त" का अर्थ धर्म है । एक ही वस्तु में परस्पर समस्त वस्तु अनेकान्त
अनेकान्त है
विरुद्ध दो धर्मों का उल्लेख होना स्वभाव वाली है इसलिए अनेकान्त वस्तु स्वरूप को सिद्ध करने वाला है । इसी प्रकार " वाद" शब्द का अर्थ है प्रकटोकरण या प्रभावना ।
१.
सन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्ष गोनेकान्तः ।”
अष्टसहस्री गा० १०३ की टोका, पृ० २८६ ।
२. ( अ ) धवला, १५:२५:१ ।
(ब) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १, पृ० १०८ ।
३. "अनेके अन्ताः धर्माः सामान्य विशेष पर्याया गुगा सस्येति सिद्धोऽनेकान्तः ।"
सप्तभंगीतरंगिणी; पृ० ३० I
४. श्री भँगरोलाल बांकोलाल स्मारिका, पृ० १७७ ।
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