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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में "वाद" शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि " व्यवहार में धर्म प्रभावना" अर्थात् व्यवहार में वस्तुओं को अनन्त धर्मता को प्रकट करना ही वाद है । किन्तु " वाद" शब्द के इस अर्थ का आशय यह नहीं है कि उसको कोई स्वतन्त्र अर्थ दिया गया है बल्कि वह कथन या उल्लेख्य मत के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अनेकान्तवाद का अर्थ होगा वस्तुओं को अनन्त धर्मता को प्रकट करना; अर्थात् विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना । परन्तु अनेकान्तवाद का यह अर्थ मेरे विचार से युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद केवल वस्तु की अनन्तधर्मता को ही सूचित नहीं करता, अपितु वह उसकी अनेकान्तिकता को भी सूचित करता है । श्री सुरेश मुनि जी का कथन है कि अनेकान्तवाद खास तौर से विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का ही प्रतिपादन करता है । उनका कहना है कि "अनेक प्रकार की विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप ( अनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् सः अनेकान्तः) में पाया जाता है । जो (धर्म) विशेषतायें परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं वे ही विशेषतायें एक ही पदार्थ में ठोक सही तौर पर पायो जातो हैं। पदार्थ की इस अनेकरूपता (धर्मात्मकता) का प्रतिपादन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद हैं । २
इस प्रकार अनेकान्तवाद के उक्त आशय के आधार पर अनेकान्त का अर्थ अनेक + अन्त ( एक से अधिक धर्म ) न होकर अन् + एकान्त अर्थात् एकान्त का निषेध है । जैन दर्शन में किसी भी वस्तु को सत्ता को उसके गुणों से निरपेक्ष नहीं माना गया है। प्रत्येक वस्तु को अपने अस्तित्व (सत्ता) के लिए गुणों की भी अपेक्षा रहती है । तत्त्वार्यसूत्र में कहा भो गया है कि द्रव्य गुण - पर्याय वाला होता है । अतः वस्तु को अपनी सत्ता के लिए उसमें अनेक धर्मों का ज्ञात-अज्ञात, भावात्मक अभावात्मक अवस्था में रहना नितान्त आवश्यक है। न तो मनुष्य का जन्म एकान्तिक रूप से सत्य है और न ही उसका मरण । दोनों को एक दूसरे को अपेक्षा होतो
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ५४१ । २. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ३५० । ३. " गुणपर्यायवद् द्रव्यम्", तत्त्वार्थसूत्र, ९:३७ ।
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