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१२० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ___ सामान्य रूप से हमारी भाषा अस्ति और नास्ति की सीमाओं से बँधी हुई है । हमारा कोई भी प्रकथन या तो अस्तिवाचक होता है या नास्तिवाचक । यदि हम इस सीमा का अतिक्रमण करना चाहते हैं तो हमें अवक्तव्यता का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्यता, ये अभिव्यक्ति के प्रारूप हैं। अभिव्यक्ति के इन तीनों प्रारूपों में पारस्परिक संगति और अविरोध रहे और वे एक दूसरे के निषेधक न बनें । इसलिए जैन आचार्यों ने प्रत्येक प्रकथन के पूर्व स्यात् पद लगाने की योजना की। इन तीनों अभिव्यक्तियों के प्रारूपों के पारस्परिक संयोग से स्यात् पद युक्त जो सात प्रकार के प्रकथन बनते हैं उसे सप्तभंगो कहते हैं।
जैन-आचार्यों ने इस सप्तभंगो को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में सप्तभंगी का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध को कल्पना को सप्तभंगी कहते हैं।' अर्थात् प्रश्नकर्ता के जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए नाना धर्मों से समन्वित किसी पदार्थ के विवक्षित धर्म का अविवक्षित नाना धर्मों से अविरोध पूर्वक सप्त प्रकार के वाक्यों द्वारा कथन करना सप्तभंगी है।
पंचास्तिकाय में कहा गया है कि प्रमाण वाक्य से अथवा नय वाक्य से, एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत्-असत् आदि धर्म की कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं।२ सप्तभंगी तरंगिणी तथा न्यायदीपिका में भी सप्तभंगों के समूह को ही सप्तभंगी कहा गया है। "सप्तभंगी नय प्रदीप प्रकरण' भी सप्तभंगी को इसी रूप में परिभाषित करता है। उसमें कहा गया है कि विधि और निषेध के द्वारा अपने अभिप्रेत अर्थ का अभिधान करने वाला नय समूह सप्तभंगी है। इस प्रकार अनेकान्त१. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी।
तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.६.५. २. एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः । सदादिकल्पनाया च सप्तभङ्गीति सा मता ।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति, श्लो० १४, छाया १५, पृ० ३० । ३. सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति ।
सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० १ ४. विधिनिषेधाभ्यां स्वार्थमदिधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति ।
सप्तभंगी-नय प्रदीप प्रकरणम्, १३.
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