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________________ चतुर्थ अध्याय जैन न्याय में सप्तभंगी भंगवाद का विकास __पिछले अध्याय में हमने देखा है कि अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार कर एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दष्टिकोणों से नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि विरोधी धर्म युगलों का समन्वय करते हैं। इसके साथ ही हमने इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि एक साधारण मानव के लिए अनन्तधर्मात्मक वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को जानकर उसका यथोचित शब्दों में वर्णन कर पाना संभव नहीं है; क्योंकि उसकी ज्ञान-शक्ति और शब्द-सामर्थ्य दोनों ही सीमित होती है। इसलिए अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक वस्तु के विवक्षित कथ्य धर्म को अविवक्षित शेष धर्मों से पृथक करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक है कि उसके यथार्थ ज्ञान एवं कथन के लिए किसी ऐसी विधा या दृष्टि का उपयोग किया जाय, जिससे प्रकथन में विवक्षित धर्म का प्रतिपादन तो हो किन्तु उसमें अवस्थित अविवक्षित धर्मों की उपेक्षा न हो । मात्र इसी लक्ष्य को लेकर जैन आचार्यों ने अपनी प्रमाण मीमांसा में सप्तभंगो की योजना की। जैन आचार्यों की दृष्टि में सप्तभंगी एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तु का आंशिक किन्तु यथार्थ कथन करने में समर्थ होता है; क्योंकि उसके प्रत्येक भंग में प्रयुक्त स्यात् शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो प्रकथन को मर्यादा को संतुलित रखता है। वह संदेह एवं अनिश्चचय का निरासकर वस्तु के किसी गुण-धर्म विशेष के सम्बन्ध में एक निश्चित स्थिति को अभिव्यक्त करता है कि वस्तु अमुक दृष्टि से अमुक धर्मवाली है। वह उस विवक्षित धर्म को शेष अविवक्षित धर्मों से पृथक् कर यह स्पष्ट करता है कि वस्तु में उन अविवक्षित धर्मों की भी अवस्थिति है। स्यात् पद इस बात पर बल देता है कि हमारे प्रकथन में वस्तु के अविवक्षित धर्मों की पूर्णतया उपेक्षा न हो जाय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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