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जैन न्याय में सप्तभंगी
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वादियों ने अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को अभिमुख करके विधि-निषेध की कल्पना द्वारा सात प्रकार के भंगों (प्रकथनों) को योजना की है । इन्हीं सातों भंगों के समाहार को सप्तभंगी कहते हैं ।
इस सप्तभंगी के सम्बन्ध में विचारकों में बड़ा मतभेद है। कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह सप्तभंगी जैन आचार्यों की मन-गढन्त कल्पना है तथा दूसरे दार्शनिक इसे अर्धसत्यों का प्रतिपादक सिद्धान्त कहते हैं; किन्तु बात ऐसी नहीं है यह तो वस्तु की यथार्थता को स्पष्ट करने की एक पद्धति है, यह जटिल वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन की एक विशिष्ट शैली है। इसके कुछ भंग तो अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित रहे हैं। यहाँ तक कि प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों में भी इसके कुछ भंगों का उल्लेख मिलता है। हाँ, यह बात अवश्य सत्य है कि सप्तभंगो के सातो भंगों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। परन्तु यह कहना नितान्त निमूल है कि उसके किसी भी भंग का उल्लेख प्राचीन आगम ग्रन्थों में नहीं है। सप्तभंगी के कुछ भंगों का उल्लेख तो वैदिक ग्रन्थों में भी है। जैन आचार्यों ने उन भंगों में कुछ और भंगों को जोड़कर मात्र उनका विस्तार किया हैं । सप्तभंगी के मूल भंग वैदिक एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी उपलब्ध हैं। हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।
किसी भी वस्तु के विषय में कथन के लिए मुख्य रूप से दो ही पक्ष होते हैं-प्रथम विधि पक्ष और दूसरा निषेध पक्ष । ये दोनों ही पक्ष एक ही वस्तु में एक ही साथ अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं। क्योंकि किसी वस्तु के विषय में एक पक्ष से कोई कथन किया जाता है तो दूसरा पक्ष भो उसो के साथ उपस्थित हो जाता है। जब हम किसी वस्तु के विषय में किसो गुण-धर्म का स्वीकारात्मक कथन करते हैं तो उसका प्रतिपक्षी निषेध पक्ष भी स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है। उदाहरणार्थ जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु लाल है तो यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वह हरी या पीली आदि नहीं है। इस प्रकार ये दोनों पक्ष ( अस्ति-नास्ति ) एक हो वस्तुमें सदैव साथ-साथ विद्यमान रहते हैं। विधि, निषेध इन दोनों पक्षों के उपस्थित होने पर समन्वय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । यदि दोनों पक्ष समन्वयकर्ता के समक्ष उपस्थित न हों तो उनमें समन्वय हो ही नहीं सकता । अतः समन्वय के लिए इन दोनों पक्षों का होना आवश्यक है।
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