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जैन न्याय में सप्तभंगी
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यहाँ यदि यह आशंका की जाय कि जब उपर्युक्त मल भंगों को जोड़ कर ही सप्तभंगी तैयार करनी है तो ऐसे भंग सात ही क्यों, वे तो अनन्त हो सकते हैं ? किन्तु यह आशंका भी ठीक नहीं है; क्योंकि जब वस्तु के किसी एक धर्म को लक्ष्य करके विधि-निषेध रूप भंग तैयार किये जाँय तो भंग सात ही होंगे और यदि वस्तु के प्रत्येक धर्म को लक्ष्य करके भंग बनाये जाँय तब तो भंगों की संख्या अनन्त होगी ही। इस संदर्भ में जैन-दर्शन भी विचार करता है। भगवती सूत्र में परमाणु के अस्तित्व विषयक प्रश्नों के संदर्भ में द्वि-प्रदेशी, त्रि-प्रदेशी, चार-प्रदेशी, पंच-प्रदेशी, और षट्-प्रदेशी स्कन्धों को लेकर भंग बनाये गये हैं उनके कुछ संदर्भ निम्नलिखित हैं :
द्वि-प्रदेशी स्कन्धों के अस्तित्व के विषय में महावीर ने जिन छ: भंगों द्वारा उत्तर दिया था वे ये हैं
(१) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान हैं। (२) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध पर-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। (३) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं।
(४) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध का एक अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान नहीं है। अतः द्वि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अस्तित्ववान् नहीं भी है।
(५) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्धावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे अंश (तदुभय) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव द्विप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है भी और अवक्तव्य भी है।
(६) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दूसरे अंश (तदुभय) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतः द्वि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य भी है।
इसके पश्चात् त्रि-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में प्रश्न पूछने पर उन्होंने निम्नलिखित भंगों के रूप में उत्तर दिया था :
(१) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववान् हैं । (२) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध पर-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। (३) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं।
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