SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या और मिरच - पीपल) तथा एक त्रिसंयोगी ( सोंठ, मिरच और पीपल मिलाकर) । इस तरह अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं, उसी तरह सत् असत् और अनुभय (अवक्तव्य) के अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं । " अब प्रश्न यह है कि जब वस्तु के सम्बन्ध में अपुनरुक्त कथन सात ही हो सकते हैं तब उसे सप्तधर्मी ही क्यों नहीं कहा जाता है ? उसे अनन्तधर्मात्मक कहने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने कहा है कि ( वस्तु के) एक-एक धर्म को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्म के साथ वस्तु के वास्तविक रूप या शब्द की असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यता को मिलाकर सात भंगों की कल्पना होती है । ऐसे असंख्य सात-सात भंग प्रत्येक धर्म की अपेक्षा से वस्तु में संभव है । इसलिए वस्तु को सप्तधर्मा न कहकर ( उसे ) अनन्तधर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है । जब हम अस्तित्व धर्म का विचार करते हैं तो अस्तित्व विषयक सात भङ्ग बनते हैं और जब नित्यत्व धर्म की विवेचना करते हैं तो नित्यत्व को केन्द्र में रखकर सात भङ्ग बन जाते हैं । इस तरह असंख्य सात-सात भङ्ग वस्तु में संभव हैं । सप्तभङ्गी नय प्रदीप प्रकरण में भी कहा गया है कि यद्यपि अनन्तधर्मयुक्त पदार्थ अनन्त हैं तथापि एक पदार्थ में एक धर्म की विवक्षा से प्रश्न सात प्रकार के होते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर हेतु एक ही सप्तभङ्गी होती है और एक धर्म की विवक्षा से एक सप्तभङ्गी होती है तो अनन्तधर्म की विवक्षा से अनन्त सप्तभङ्गी होगी, यदि ऐसी आशंका की जाय तो यह बात जैन दर्शन को स्वोकार ही है । जैन-दर्शन यह मानता है कि एक धर्मी में यदि अनन्त धर्म हैं और एक धर्म की विवक्षा से एक सप्तभङ्गी बनती है तो अनन्त धर्म की विवक्षा से अनन्त सप्तभङ्गी बनेगी ही । यही सप्तभङ्गी की अनन्तता है । १. जैन दर्शनद, पृ० ३७५ २. वही । ३. यद्यप्यनन्तधर्माध्यासिता अनन्ता एव पदार्थाः, तथाऽप्येकस्मिन् पदार्थे एक धर्ममधिकृत्य प्रश्नाः सप्तैवेति पदुत्तरवाक्यरूपा एकैव सप्तभङ्गी भवतीति नियमः, । यद्येकधर्मविवक्षया एका सप्तभङ्गी, तहि अनन्त धर्मविवक्षया अनन्ता सप्तभङ्गयपि स्यादित्यत्रेष्टापत्तिमाह- अनन्तधर्मविवक्षयेति - एकत्र धर्मिणि यावन्तो धर्मास्तत्र प्रत्येक धर्मविवक्षया एकैक सप्तभङ्गीसम्भवे तावत्यः सप्तभङ्गयः स्युरेवेत्यर्थः । एतत् तु सप्तभङ्गीनामनन्तत्वं पुनः । सप्तभङ्गी - नयप्रदीपप्रकरणम्, पृ० ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy