SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन न्याय में सस्तभंगी १३७ इसी अपनी समन्वयात्मक विशाल एवं उदार तत्व दृष्टि से महावीर ने वस्तु के विराट् स्वरूप को देखा। एक बार गौतम ने महावीर से पूछा कि भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वो अस्तित्ववान् है या नहीं? तब इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप महावीर ने कहा कि १-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अस्तित्ववान् है । २-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अस्तित्ववान् नहीं है। ३-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है । एक ही तत्त्व के विषय में इन तीन उत्तरों को सुनकर गौतम ने पुनः पूछा कि भगवन् यह कैसे ? तब उन्होंने कहा कि १-रत्नप्रभा पृथ्वी स्व-स्वरूप को अपेक्षा से अस्तित्ववान् है । २-रत्नप्रभा पृथ्वी पर-पदार्थ के स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है। ३. रत्नप्रभा पृथ्वी तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसी प्रकार गौतम ने जब अन्य पृथ्वियों, देवलोकों आदि के विषय में पूछा तो महावीर ने उन सभी प्रश्नों के विषय में भो उसी प्रकार उत्तर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-दर्शन के यही तोन मुल भंग हैं। इन्हीं तीनों मूलभूत भंगों के संयोग से सप्तभंगी तैयार की गयो है। जैनदार्शनिकों ने गणितशास्त्र के आधार पर भी यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सप्तभंगी में मूलभूत भंग तीन ही हैं और उन्हीं तोन भंगों के संयोग से सप्तभंगी बनी है। यद्यपि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं और उन अनन्त धर्मों के संदर्भ में अनन्तभंग बन सकते हैं किन्तु उन अनन्त भंगों का समावेश इन्हीं सातों भंगों के अन्तर्गत हो जाता है। भले ही वे अनन्त भंग कुछ न कुछ नवीनता प्रदान करें किन्तु उन्हें पूर्णतः स्वतन्त्र भंग नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि तीन ही मूलभूत भंगों का संयोग सप्तभंगी में हैं तो वास्तव में उनके संयोग से बनने वाले भंगों की संख्या सात ही होगी। न तो उससे कम और न तो उससे अधिक ही होगी । जैन-आचार्यों ने कहा भी है कि "मूल भंग तो तीन ही हैं-सत्, असत् और अवक्तव्य । गणित के नियम के अनुसार तीन संख्याओं के संयोग से बनने वाले अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते है, अधिक नहीं। जैसे सोंठ, मिरच और पोपल के प्रत्येक तीन विकल्प और द्विसंयोगी तीन-(सोंठ-मिरच, सोठ-पीपल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy