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________________ १३६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या अतएव वस्तु की ऐकान्तिक अवक्तव्यता के विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नहीं, उसका वर्णन भी शक्य है. इसी प्रकार समन्वयवादी ने जब वस्तु को सदसत् कहा, तब उसका वह समन्वय भी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोध में विपक्ष का उत्थान हुआ। अतएव किसी ने कहा एक ही वस्तू सदसत् कैसे हो सकती है उसमें विरोध है; जहाँ विरोध होता है, वहाँ संशय उपस्थित होता है जिस विषय में संशय हो, वहाँ उसका ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव मानना चाहिए कि वस्तु का सम्यक् ज्ञान नहीं। हम उसे ऐसा भी नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञान का तात्पर्य वस्तु की अज्ञेयता-अनिर्णयता एवं अवाच्यता में जान पड़ता है। यदि विरोधी मतों का समन्वय एकान्त दृष्टि से किया जाये, तब तो पक्षविपक्ष समन्वय का चक्र अनिवार्य है। इसी चक्र को भेदने का मार्ग महावीर ने बताया है। इसके सामने पक्ष-विपक्ष-समन्वय और समन्वय का भी विपक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्ष का रूप ले ले, तब तो पक्ष-विपक्ष-समन्वय के चक्र की गति नहीं रुकती। इसी से उन्होंने समन्वय का एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्ष का अवकाश न दे सके।"" वस्तुतः महावीर की समन्वय प्रवृत्ति स्वतन्त्र या निरपेक्ष नहीं है। उनके समन्वयात्मक चिन्तन में सभी विरोधी पक्षों का यथोचित स्थान है। वे अपनी समन्वय पद्धति में सभी विरोधी-अविरोधी पक्षों को समाहित करते हैं। अतएव उनका समन्वय सभी विरोधी-अविरोधी पक्षों का सम्मेलन मात्र है। उन्होंने प्रत्येक पक्ष की सच्चाई पर ध्यान दिया और प्रत्येक पक्ष को यथायोग्य स्थान दिया। उनके समय तक जितने भी विरोधीअविरोधी पक्ष थे उन सबको सत्य बताया। महावीर के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण सत्य का दर्शन तो उन सभी विरोधों के मिलने से हो हो सकता है पारस्परिक निरास से नहीं। सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं और उन्हीं सब दृष्टियों के समुचित समन्वय से वस्तु के स्वरूप का आभास होता है। इस प्रकार महावीर ने अपनी समन्वयात्मक दृष्टि से वस्तु को यथार्थता को देखने का प्रयत्न किया। अतः उनका यह समन्वय व्यापक है। यह सभी विरोधी पक्षों को समाहित करता है, आत्मसात् करता है। १. आगम युग जन-दर्शन, पृ० १०२-१०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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