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प्रथम अध्याय
अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
( अ ) ईसा पूर्व छठीं शताब्दी का दार्शनिक चिन्तन
ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में मानव को जिज्ञासा-वृत्ति काफी प्रौढ़ हो चली थी । अनेक विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन का बौद्धिक प्रयास कर रहे थे । यद्यपि उनके चिन्तन में तर्क की अपेक्षा कल्पना का ही पुट अधिक था । विश्व की मूल सत्ता का स्वरूप, विश्व की उत्पत्ति का कारण, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता और कर्मों शुभाशुभ के प्रतिफल आदि प्रश्नों पर विचारक अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत कर रहे थे । साथ ही प्रत्येक चिन्तक अपने मन्तव्य को सत्य और दूसरे के मन्तव्य को असत्य बता रहा था । इस प्रकार उस युग में अनेक स्वतन्त्र दार्शनिक अवधारणायें अस्तित्व में आ गयी थीं और दार्शनिक विवाद उग्र रूप धारण कर रहे थे ।
प्राचीन भारतीय विचारक चिन्तन के लिए किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं थे । उस युग में स्वतन्त्र चिन्तन करने की पूर्णत: छूट थी । मनीषी गण स्व-चिन्तन के आधार पर अपने-अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत कर रहे थे । यही कारण है कि उनके मन्तव्यों में एकरूपता नहीं आ सकी और विभिन्न वादों की धारायें बह चलीं । वस्तुतः हिरियन्ना का यह कथन समुचित ही है कि - उपनिषदों में ठीक क्या-क्या कहा गया है, यह प्रश्न जब पूछा जाता है तब उनके मत परस्पर बहुत भिन्न हो जाते हैं ।"" इसी बात की परिपुष्टि डॉ० राधाकृष्णन् के इस बात से होती है, "क्या उपनिषदों के विचार एक ही लड़ी में पिरोये हुए हैं ? क्या सृष्टि की साधारण व्यवस्था के विषय में कोई निश्चित सर्वमान्य नियम सबमें एक समान पाये जाते हैं ? हम साहस के साथ इस प्रश्न का उत्तर हाँ में नहीं दे सकते । इन उपनिषद्ग्रन्थों में आवश्यकता से अधिक संख्या विचार भरे हुए हैं; अत्यधिक संख्या में सम्भावित अर्थ भरे पड़े हैं;
गूढ़
१. द्रष्टव्य : भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ५२ ।
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