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तृतीय अध्याय : ज्ञान एवं वचन को प्रामाणिकता
८१-११८ ज्ञान की प्रामाणिकता का प्रश्न ८१; यथार्थ ८६; अबाधित्व ८६; अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन या अपूर्व अर्थ प्रापण ८६; अविसंवादित्व या संवादी प्रवृत्ति ८७; प्रवृत्ति सामर्थ्य या अर्थक्रियाकारित्व ८७; वचन की प्रामाणिकता का प्रश्न ८९; १. पर्याप्तिक भाषा ९४:-पर्याप्तिक सत्य भाषा ९४; जनपदसत्य ९५; सम्मत सत्य ९६; स्थापना सत्य ९६; नाम सत्य ९६; रूप सत्य ९७; प्रतीति सत्य ९६; व्यवहार सत्य ९७; भाव सत्य ९७; योग सत्य ९७; उपमा सत्य ९७; तथा पर्याप्तिक मृषा (असत्य) भाषा ९७; अपर्याप्तिक भाषा ९८; अपर्याप्तिक भाषा ९८; उत्पन्न मिश्रक ९८; विगत मिश्रक ९९; उत्पन्न-विगत मिश्रक ९९; जीव मिश्रक ९९; अजीव मिश्रक ९९; जीवाजीवमिश्रक १००; अनन्त मिश्रक १००; परित्त मिश्रक १०१; एवं अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मषाभाषा १०१; आमन्त्रणी भाषा १०१; आज्ञापनीय भाषा १०१; याचनीय भाषा १०१; प्रच्छनीय भाषा १०२; प्रज्ञापनीय भाषा १०२; प्रत्याख्यानीय भाषा १०२; इच्छानुकूलिका भाषा १०२; अनभिग्रहीता भाषा १०२; अभिग्रहीता भाषा १०३; संदेहकारिणी भाषा १०३; व्याकृता भाषा १०३; अव्याकृता
भाषा १०३; प्रमाण १०४; नय ११०; दुनय ११५; चतुर्थ अध्याय : जैन न्याय में सप्तभंगी
११९-१६९ भंगवाद का विकास ११९; भंगों की आगमिक व्याख्या १४९; प्रथमभंग १४९; द्वितीय भंग १५२; तृतीय भंग १५७; चतुर्थ भंग १५९; पंचम भंग १६७; षष्ठ भंग १६७;
सप्तम भंग १६८ पंचम अध्याय : समकालीन तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन
१७०-२०५ षष्ठ अध्याय : उपसंहार
२०६-२२३ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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