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अनुक्रम
प्रथम अध्याय : अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
ईसा पूर्व छठीं शताब्दी का दार्शनिक चिन्तन १; उपनिषदों, बौद्धपिटक साहित्य और जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें ११; दार्शनिक चिन्तन में उपलब्ध विरोध के समाधान या समन्वय के प्रयत्न १५ औपनिषदिकचिन्तन में उपलब्ध विरोध- समाधान के सूत्र १५; बुद्ध का दृष्टिकोण १८; एकान्तवाद का निषेध १८; अव्याकृतवाद २१; विभज्यवाद २५; जैन परम्परा में समन्वय का प्रयास २८; महावीर का विधायक दृष्टिकोण २९; वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता ३५; अनेकान्तवाद की अवधारणा ४२;
द्वितीय अध्याय: स्याद्वाद एक सापेक्षिक दृष्टि स्याद्वाद का तात्पर्य ५०;
स्यात् शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ ५६; वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता ६१; मानवीय ज्ञान की अपूर्णता ६२; भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता ६३; स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनका निराकरण ६४; सप्तभंगों में एक ही वस्तु का विधान और निषेध करना ६९; प्रत्येक वस्तु को स्वधर्माश्रयी के साथ ही विरुद्ध धर्म युगलाश्रयी सिद्ध करना ७०; प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना ७१; प्रत्येक भंग को एक निश्चितमूल्य प्रदान न करना ७२; स्यात् पद को अनेकार्थक मानना ७२; स्यात् पद का वास्तविक अर्थ ७२; अनन्तधर्मता का द्योतक ७५; वस्तु में कथ्य धर्म की सापेक्षता का सूचक ७५; प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना ७५; एकान्तता का निषेधक ७५; 'एव' से योजित होकर प्रकथन को निश्वयात्मक बनाना और तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेद करना ७६; अनेकान्तवाद और स्यादवाद का सम्बन्ध ७६;
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