________________
जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ये कल्पनाओं और वितर्कों की समृद्ध खान हैं । ..( फिर भी) उपनिषदों के अन्दर दार्शनिक संश्लेषण नाम की कोई वस्तु, जैसी कि अरस्तू, काण्ट अथवा शंकर की पद्धतियों में है, नहीं पायी जाती"।' इसका कारण यही हो सकता है कि प्रत्येक विचारक अपने मन्तव्य को सत्य और दूसरे के मन्तव्य को असत्य बता रहा था। जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके चिन्तन में अनेक प्रकार के विरोध और अनियमिततायें आ गयीं। डा० राधाकृष्णन् ने ही कहा है कि "यह एक युग था जो अद्भुत अनियमितताओं एवं पारस्परिक विरोधों से भरभूर था। "तन्त्र-मन्त्र एवं विज्ञान, संशयवाद एवं अन्धविश्वास, स्वच्छन्द जीवन एवं तपस्या ( आत्मसंयम) साथ-साथ एक दूसरे से मिले-जुले हुए पाये जाते हैं।" २
इस तरह उस युग के विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन के बौद्धिक प्रयासों में निरत पाये जाते हैं। इस सन्दर्भ में उन जिज्ञासू चिन्तकों के समक्ष अनेक समस्याएँ उपस्थित थीं जैसे विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् है ? यदि वह सत् है तो वह पुरुष (चेतन सत्ता ) है या पुरुष से इतर जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक है ? श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस तरह की समस्या उठायी गयी है यथा-इस जगत् का कारण क्या है ? हम कहाँ से उत्पन्न हुए हैं ? हम किसके द्वारा धारित हैं और अन्तिम परिणति कहाँ है ? हम किसके द्वारा प्रेरित होकर सुख-दुःख की व्यवस्था (संसार यात्रा ) का अनुवर्तन करते हैं ? हे ब्रह्मवेत्ताओं! क्या इन सबका कारण ब्रह्म ही है ? केनोपनिषद् में गुरु से शिष्य पूछता है कि “किसकी इच्छा से प्रेरित होकर मन अपने अभिलषित प्रयोजन की ओर आगे बढ़ता है ? किसकी इच्छा से वाणी
१. द्रष्टव्य : भारतीय दर्शन भाग १, ( राधाकृष्णन् ) पृ० १२८ । २. वही, पृ० २५० । ३. श्वेताश्वतरोपनिषद् १.१ किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता
जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः । अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु
कर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org