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________________ ३ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास बोलते हैं ? कौन सा देव आँख या कान को प्रेरणा देता है ?'' इस प्रकार इसी तरह की विभिन्न दार्शनिक शंकायें उठाकर पूर्ण रूप से विचार किया गया है जिसका कुछ परिचय हमें उपनिषदों, बौद्ध पिटक ग्रन्थों एवं जैनागम सूत्रकृताङ्ग में मिलता है। इसी आधार पर हम उस युग की दार्शनिक स्थिति का कुछ आकलन कर सकते हैं। सर्व प्रथम उपनिषदों की ओर आयें। (१) उपनिषदों में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें : हमने पूर्व में ही कहा है कि उपनिषदों में किसी भी सुव्यवस्थित दार्श'निक विधा का अभाव है। विभिन्न मनीषियों के दार्शनिक विचार यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उनमें से अनेक परस्पर विरोधी मन्तव्य भी उपलब्ध हैं। जो इस बात के सूचक हैं कि वह युग दार्शनिक चिन्तन को अस्त-व्यस्तता का युग था, उसमें किसी भी सुव्यवस्थित दर्शन का विकास नहीं हो पाया था। उपनिषदों में वे परस्पर विरोधी दार्शनिक मन्तव्य कहाँ-कहाँ उपलब्ध हैं, इसे निम्नलिखित उद्धरणों से समझा जा सकता है । सृष्टि का मूल तत्त्व सत् है या असत् । इस समस्या के सन्दर्भ में हमें दोनों प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। कुछ विचारक उसे सत् कहते हैं तो कुछ विचारक उसे असत् कहते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि "प्रारम्भ में असत् ही था। उसी से सत् की उत्पत्ति हुई।"२ इसी विचारधारा का समर्थन छान्दोग्य उपनिषद् में भी उपलब्ध है । उसमें कहा गया है कि "सर्वप्रथम असत् ही था उससे सत् हुआ और उस सत् से सृष्टि की उत्पत्ति हुई।"३ किन्तु इस 'असत्वादी" विचारधारा के विपरीत "सत्वादी" विचारधारा के तत्त्व भी उपनिषदों में उपलब्ध होते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् १. केनोपनिषद् १.१ केनेषितां वाचामिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति । २. तैत्तिरीय उपनिषद्-२.७ । "असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत ।" ३. छान्दोग्य उपनिषद् -३.१९.१ । "असदेवेदमग्र आसीत् । तत् सदासीत् । तत्समभवत् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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