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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
में ही इस "सत्वादी" विचारधारा के समर्थन में कहा गया है कि पहले अकेला सत् ही था। दूसरा कोई नहीं था। उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ।"" बृहदारण्यक उपनिषद् में भी कहा गया है कि "जो कुछ भी सत् है उसकी सत्ता इस लोकातीत सत् से ही है। इस प्रपञ्चात्मक जगत् की सृष्टि इसी सत् से होती है।"२ बृहदारण्यक के इस कथन से भी इसी सत्वादी विचारधारा की ही पूष्टि होती है। इस प्रकार उपनिषदों में सत्वाद और असत्वाद दोनों ही विचारधाराओं के बीज उपलब्ध हैं।
इस विश्व का मूल तत्त्व जड़ है या चेतन । इस प्रश्न के सन्दर्भ में भी उपनिषदों में दो प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। कुछ विचारक उसे जड़ कहते हैं तो कुछ विचारक चेतन । बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से संवाद करते हुए कहते हैं कि "विज्ञानघन ! (यह विश्व) इन भूतों से ही समुत्थित होकर इन्हीं में लीन हो जाता है परलोक या पुनर्जन्म जैसी कोई बात नहीं है।" किन्तु इसके विपरीत छान्दोग्य उपनिषद् में चैतन्यवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए कहा गया है कि "पहले अकेला सत् ही था दूसरा कोई नहीं था उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ।" ४ इसके पश्चात् उसके विभिन्न रूपों में उत्पन्न होने की बात कही गयी है। "पहले उससे तेजस, अप् और पृथ्वी इन तीन महाभूतों को उत्पत्ति हुई। फिर अन्न और तब अण्डज-जीवों एवं उद्भिज जीवों की सृष्टि हुई।"५ इस प्रकार उक्त कथन में मूलतत्त्व (सत्) के सोचने की बात को कहकर चैतन्यवादी विचारधारा का ही समर्थन किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी उसके कामना करने की बात कहकर उसी चैतन्यवादी विचारधारा का समर्थन किया गया है। उसमें कहा गया है कि "उस
१. छान्दोग्य उपनिषद्-६.२.१,३ ।
“सदेवंसोम्येदमग्र आसीत् एक मेवाद्वितीयम् । तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ।" २. बृहदारण्यक उपनिषद्-१.४.१-४ । ३. वही २.४.१२
"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति
न प्रत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" ४ छान्दोग्य उपनिषद्-६.२.१, ३ । ५. बृहदारण्यक उपनिषद्-२.४.१२ की टीका ।
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