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प्रकाशकीय
आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त यही जैनधर्म के रथ के दो चक्र हैं। जहाँ अहिंसा व्यावहारिक जगत के संघर्षों का समाधान करती है वहाँ अनेकान्त वैचारिक संघर्षों का समाधान करता है। अपने विरोधी के विचारों में भी सत्यता का दर्शन करना यह अनेकान्त दृष्टि की विशेषता है। आज विश्व में हिंसा की ज्वाला धधक रही है और वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। ऐसी स्थिति में अहिंसा और अनेकान्त ही शान्ति और समन्वय का मार्ग दिखा सकते हैं। पूर्व में हमने विद्याश्रम शोध संस्थान से अहिंसा पर एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है अतः यह आवश्यक था कि दूसरे पक्ष अनेकान्त पर भी एक उच्चकोटि के ग्रन्थ को प्रकाशित किया जाये। अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी एक दूसरे के पूरक हैं। सप्तभंगी अनेकांत की भाषायी अभिव्यक्ति का माध्यम है। आधुनिक तर्कशास्त्र के विचारकों ने भी इसके महत्त्व को स्वीकार किया।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक डा० भिखारीराम यादव, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के शोधछात्र रहे हैं तथा वर्तमान में एस० एन० सिन्हा महाविद्यालय, औरंगाबाद ( बिहार ) में दर्शन के प्राध्यापक हैं। उन्होंने लगभग ३ वर्ष तक कठोर श्रम करके स्याद्वाद और सप्तभंगी जैसे जटिल तार्किक सिद्धांत का अध्ययन करके यह ग्रंथ लिखा है। प्रस्तुत शोधनिबन्ध में उन्होंने न केवल जैन दृष्टिकोण से अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी की व्याख्या की है, अपितु अन्य भारतीय दर्शनों एवं पाश्चात्य दर्शनों के साथ इसका मूल्यांकन कर तुलनात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया है, साथ ही समकालीन प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के सम्बन्ध में इसकी वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की है। इस ग्रन्थ पर उन्हें सन् १९८३ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की थी। __इस ग्रन्थ की भूमिका के रूप में हमने प्रो० सागरमल जैन का एक आलेख प्रकाशित किया है; वस्तुतः यह आलेख इस ग्रन्थ की पूर्व भूमिका के रूप में ही है और इस ग्रन्थ को समझने हेतु उसका अध्ययन आवश्यक
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