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है। हम प्रो० सागरमल जैन के अत्यन्त आभारी हैं कि उन्होंने इस ग्रन्थ के विषय चयन से लेकर प्रकाशन तक की समस्त प्रक्रियाओं में सूत्रधार की तरह कार्य किया है। ग्रन्थ के लेखक डा० भिखारीराम यादव और मार्गदर्शक डा० सागरमल जैन दोनों ही विद्याश्रम के ही अपने लोग हैं अतः उनके प्रति आभार प्रकट करना भी शाब्दिक औपचारिकता ही है। इस अवसर पर हम काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के प्रो० आर० एन० मुखर्जी के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं क्योंकि उन्होंने पाश्चात्य सिद्धान्तों के साथ सप्तभंगी की तुलना में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। ___इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिये हमें डा० रमनलाल सी० शाह की प्रेरणा से जैन नव युवक संघ, बम्बई से १० हजार रुपये का सहयोग प्राप्त हुआ, अतः हम संघ के न्यासियों के आभारी हैं। इसके पूर्व भी संघ ने विद्याश्रम को आर्थिक सहयोग प्रदान किया था। संघ के पदाधिकारियों की जैन विद्या के प्रकाशनों के प्रति यह रुचि अनुकरणीय है । इस ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रक्रिया में डा० शिव प्रसाद, डॉ. अशोक कुमार एवं श्री महेश कुमार से सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ है अतः हम उनके भी आभारी हैं। इसके सुन्दर और द्रुत गति से मुद्रण के लिये रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स के प्रति आभार प्रकट करना भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। ग्रन्थ की महत्ता और मूल्यवत्ता के सम्बन्ध में मैं तो अधिक कुछ नहीं कह सकता, विद्वानों और पाठकों की प्रतिक्रिया ही इस ग्रन्थ के प्रकाशन की मूल्यवत्ता का आधार
होगी।
भवदीय भूपेन्द्र नाथ जैन
मंत्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान,
वाराणसी
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