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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
शुभाशुभ कर्म एवं तज्जन्य फलरूप पाप-पुण्य, सुख-दुःखादि देव-निर्मित हैं । जीव उसे करता नहीं, मात्र भोगता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है"जीव हैं, उन्हें सुख-दुःख का अनुभव होता है तथा वे अन्त में अपने स्थान से नाश को प्राप्त होते हैं इसको सब लोग मान लेंगे। जो सुख-दुःखादि हैं, ये जीव के स्वयं किये हुए नहीं हैं - ये तो देव नियत हैं ।" परन्तु इसके विपरोत कुछ लोग यह मानते थे कि पाप-पुण्य, दुःख-सुख, शुभाशुभ कर्म आदि मानव कृत हैं; जो जैसा कर्म करता है उसको वैसा फल प्राप्त होता है । ये कर्म जन्य फल मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों कर्मों से उत्पन्न होते हैं । इसका भी उल्लेख सूत्रकृतांग में है । वहाँ कहा गया है कि "जो मनुष्य विचार करने पर भी हिंसा नहीं करता तथा जो अनजान में हिंसा करता है, उसे कर्म का स्पर्श होता तो है अवश्य, पर उसे पूरा पाप नहीं लगता । पाप लगने के स्थान तीन हैं—स्वयं विचार पूर्वक करने से, दूसरों से कराने से, दूसरे के कार्य का अनुमोदन करने से । परन्तु यदि हृदय पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले।
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इसी प्रकार कुछ ऐसे भी विचारक थे जो यह मानते थे कि शुभाशुभ कर्मों को करना या उनके विषय में सोचना भी व्यर्थ है क्योंकि कितने संयम से रहने पर भी अन्त में पापयुक्त होना ही पड़ता है । वस्तुतः इसके सन्दर्भ में सोचना ही नहीं चाहिए । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि
१. न तं सयं कडं दुक्खं, सुहं वा जइ वा दुक्खं
कओ अन्नकडं चणं । सेहियं वा असे हियं ॥ न सयं कडं न अहिं, वेदयन्ति पुढो जिया । संगइअं तं तहा तेसिं, इहमेगेसिं आहिअं ||
सूत्रकृतांग १:१:२:२,३ ॥ २. जाणं काएणणाकुट्टी, अबुहो जं च हिंसति । पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावज्जं ॥ संति तउ आयाणा, जेहि कीरइ पावगं । अभिकम्माय पेसाय, मणसा अगुजाणिया || एते उतर आयाणा जेहि कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छइ ॥
वही १:१:२:२५,२६,२७ ॥
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