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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
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की ? क्या कोई ऐसा नियामक है जो इस सृष्टि को रचना करता है और पुनः इसे नष्ट भी कर देता है ? अथवा स्वयं से हो यह सृष्टि उत्पन्न होती है और स्वयं से ही लुप्त हो जाती है ? इन सारे प्रश्नों के सम्बन्ध में भी विभिन्न विचारकों के विभिन्न विचार हैं, विभिन्न मत हैं । उनके विचारों में एकरूपता नहीं है क्योंकि कुछ लोग कहते थे कि सृष्टि किसी देव के द्वारा रचित है । वही इसका नियामक है, वही इसका कर्त्ता है । तो कुछ जिज्ञासु कहते थे कि इस सृष्टि को स्वयं ईश्वर रचता है, तो कुछ लोग कहते थे कि इसकी रचना ब्रह्मा ने की। परन्तु इसके विपरीत कुछ मनीषी यह कहते थे कि इस सृष्टि की रचना न तो ईश्वर ने की है न तो देव और न तो ब्रह्मा ने ही की है । यह स्वयं उत्पन्न होती है और स्वयं नष्ट भी हो जाती है । इसका ऐसा स्वभाव ही है । इस प्रकार इन जिज्ञासुओं के भी विचार सूत्रकृतांग में उपलब्ध हैं । महावीर ने कहा है
"कोई कहते हैं - देव ने इस संसार को बनाया है, कोई कहते हैं ब्रह्मा ने; कोई कहते हैं जड़ चेतन से परिपूर्ण तथा दुःख सुख वाले इस जगत् को ईश्वर ने रचा है और कोई कहते हैं; नहीं स्वयंभू आत्मा से इस जगत् की उत्पत्ति हुई है । ( इसी प्रकार ) कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु ने अपनी माया शक्ति से इस अशाश्वत जगत् की रचना की है। वहीं कुछ श्रमण और ब्राह्मण यह भी कहते हैं कि यह संसार अंडे में से उत्पन्न हुआ हैं । "
शुभाशुभ कर्मों और उनसे प्राप्त फलों के सन्दर्भ में भी उन दिनों अनेक प्रकार की विचारधारायें प्रचलित थीं । कुछ जिज्ञासु कहते थे कि
१. इणमन्नं तु अन्नाणं, इह मेगेसि माहियं । देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेत्ति आवरे ॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे | जीवाजीवसमाउत्ते, सुदुक्खसमन्वि ॥ सयंभुणा कडे लोए, इति वृत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए | माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥
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सूत्रकृतांग १:१:३:५-८ ।
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