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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
"इस संसार में जो कुछ हैं वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पंच भूत ही हैं, यहाँ शरीर या जोव इन पांचों में से उत्पन्न होता है और इन पांचों के नष्ट होने पर इनके साथ शरीर रूप जीव का भी अन्त हो जाता है ।"
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किन्तु इसी सन्दर्भ में एक दूसरी विचारधारा भी प्रचलित थी, जो यह मानती थी कि मूलतत्त्व पांच ही नहीं बल्कि छ: हैं और ये सबके सब नित्य हैं । अतः ये नष्ट नहीं होते । इनकी भी चर्चा सूत्रकृतांग में की गई है । "छः तत्त्व हैं - पंच महाभूत और एक आत्मा । ये सब शाश्वत नित्य हैं । इनमें से एक भी नष्ट नहीं होता । इस प्रकार जो वस्तु है ही नहीं वह क्यों कर उत्पन्न हो सकती है ? इस प्रकार पदार्थ सर्वथा नित्य है । " परन्तु इसके विपरीत कुछ चिन्तक उच्छेदवाद का समर्थन करते हुए कहते थे कि तत्व क्षणिक है ये क्षण-क्षण उत्पन्न होते हैं और क्षण-क्षण नष्ट भी हो जाते हैं । रूपादि पंच स्कन्धों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । नित्य, शाश्वत, विभु आत्मा की कल्पना करना व्यर्थ है । इनके इस विचार का चित्रण करते हुए कहा गया है कि - " क्षण-क्षण उत्पन्न और नष्ट होने वाले रूपादि पांच स्कन्धों के सिवाय कोई ( आत्मा जैसी ) वस्तु ही नहीं है ।" इसी प्रकार इस विश्व को विचित्र रचना के सम्बन्ध में भी कुछ जिज्ञासु विचार व्यक्त करते थे कि इस विचित्र रूपा सृष्टि को रचना किसने १. “संति पंच महब्भूया, इमेगेसिमाहिया ।
यह
पुढवी आउ तेऊ वा, वाउ आगासपंचमा || एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह सिविणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥
सूत्रकृतांग १:१:१:७,८ ।
२. संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिओहिया । आछट्टो पुणो आहु, आया लोगे य सासए || दुहओ ण विणस्संति, नो य उप्पज्जए असं । सब्बे व सव्वा भावा, नियत्तो भावमागया ॥
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वही १:१:१:१५, १६ ।
३. "पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । अण्णी अण्णी वाहु, हेउयं च अहेउयं ॥
वही १:१:१:१७ |
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