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________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ११ परन्तु वे अपने-अपने मन्तव्यों को सत्य ही नहीं अपितु दूसरे के मन्तव्य को असत्य भी बता रही थीं । जब कि वास्तविकता यह थी कि सबके सब मिथ्या दृष्टियों का ही निरूपण कर रही थीं। यही कारण है कि बुद्ध उन दृष्टियों को मिथ्या दृष्टियों के नाम से सम्बोधित किया है । ऐसी बासठ मिथ्या दृष्टियों का उल्लेख दीघनिकाय में है । ' (३) जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें इसी प्रकार उस युग में प्रचलित ऐसी ही अनेक मिथ्या दृष्टियों का उल्लेख जैनागम सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है । जिस प्रकार तत्कालीन विचारक आत्मा और लोक की नित्यता अनित्यता, चेतनता -अचेतनता आदि के सन्दर्भ में अपने-अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे ठीक उसी प्रकार विश्व के मूल तत्त्व की एकता - अनेकता, नित्यता- अनित्यता, चेतनता अचेतनता आदि के विषय में भी मनीषीगण अपने-अपने मन्तव्य निरूपित कर रहे थे । कुछ चिन्तक ऐसा मानते थे कि वह विश्व का मूल तत्त्व एक ही है किन्तु वह अपने को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करता है । जिस प्रकार मिट्टी घट, ईंट, कपाल, आदि विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती हैं परन्तु उन सबके मूल में मिट्टी ही रहती है उसी प्रकार यह विश्व यद्यपि विभिन्न रूपों में दिखलायी पड़ता है किन्तु इन सबके मूल में आत्म तत्त्व ही है । वही अपने को इन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करता है । महावीर ने इस विचारधारा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "जिस प्रकार एक ही पृथिवी पिण्ड नाना रूपों में दिखाई देती है उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त लोकों में विविध रूप से दिखाई देती है । परन्तु इसके विपरीत कुछ विचारक यह मानते थे कि वह मूल तत्त्व एक नहीं है अपितु वे पांच हैं। उन्हीं पांचों तत्त्वों के संयोग से इस विश्व की उत्पत्ति होती है और उनके संयुक्तावस्था के भंग होते ही यह विश्व भी छिन्न-भिन्न हो जाता है । उन विचारकों का ऐसा कहना है कि १. द्रष्टव्य : दीघनिकाय भाग - १ ब्रह्मजाल सुत्त । २. जहा य पुढवीथूभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो कसिणे लोए, विन्नु नाणाहि दीसइ || Jain Education International सूत्रकृतांग १:१:१:९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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