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१६८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या असत् अंश अनिर्वचनीय कल्पना प्रधान यह पांचवां भंग है "स्यादस्त्येव के द्वारा स्वद्रव्यादि चतुष्टय की दृष्टि से अस्तित्व विशेष का प्रतिपादन होता है और "स्यादवक्तव्यम्" के द्वारा युगपत् प्रधान भाव की अपेक्षा सत् अंश पूर्वक अनिर्वचनीय स्वरूप विशेष का प्रतिपादन होता है।' षष्ठ भंग
"स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्व" यह सप्तभंगी का छठवाँ भंग है। इसमें द्वितीय और चतुर्थ भंग का संयोग है। इसमें वस्तुतत्त्व के नास्तित्व पक्ष की प्रधानता के साथ उसके समग्र स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे "स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च अश्वः" अर्थात् सापेक्षतः अश्व नास्ति रूप है और अवक्तव्य है। कहने का तात्पर्य यह है कि अश्व में अश्वेतर धर्मों का अभाव है पर उसका युगपत् स्वरूप अवक्तव्य है। मात्र इसी भाव को अभिव्यंजना यह भंग करता है। सप्तभंगीतरंगिणी में इसका लक्षण करते हुए कहा गया है कि ऐसे ही पृथक भूत पर्याय और मिलित द्रव्यपर्याय का आश्रय करके "स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्व घटः" किसी अपेक्षा से घट नहीं हैं तथा अवक्तव्य है, इस षष्ठम् भंग की प्रवृत्ति होती है। इसका लक्षण है घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष का असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व वाले ज्ञान को उत्पन्न करना।२ अर्थात् जिस ज्ञान में घट आदि पदार्थ विशेष्य हों और असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व उसका विशेषण हो ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करने वाला वाक्य षष्ठ भंग है। पर पर्यायों की अपेक्षा से नास्तित्व और मिलित द्रव्यपर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्यत्व, ये दोनों इस भंग में विवक्षित हैं। तात्पर्य यह है कि इस भंग में नास्तित्व धर्म मुख्य और उभयात्मक धर्म गौण है। सप्तम भंग
"स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्यश्च" यह सप्तभंगी का सातवाँ भंग और
१. सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरणम्, प्रथम सर्ग । २. तथा व्यस्तं पर्यायं समस्तौ द्रव्यपर्यायौ चाश्रित्य स्यानास्ति चावक्तव्य एव घट
इति षष्ठः । तल्लक्षणं च घटादिरूपैकर्मिविशेष्यकनास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वम् ।
-सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ७२ ।
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