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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी में प्ररूपणा का निषेधक है । जैसे एक पदार्थ के विधि-प्रतिषेध रूप धर्मों के युगपत् भाव की प्रधानता से युगपत् विधि-निषेध दोनों धर्मों के वाचक शब्द के अभाव से घटादि वस्तु अवक्तव्य है।" सप्तभंगीतरंगिणी भी अवक्तव्य के इसी अर्थ का प्रतिपादन करती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि विवक्षित सप्तभंगी में प्रयुक्त अवक्तव्य एक निश्चित अर्थवाला है और वह है अस्ति और नास्ति रूप दो धर्मों को युगपततः अव्याख्येय कहना। पंचम भंग ___ यह सप्तभंगी का पांचवाँ भंग है। इसमें प्रथम और चतुर्थ भंग का संयोग है । इसका अर्थ है सापेक्षतः"है और अवक्तव्य है। यह भंग वस्तु के भावात्मक स्वरूप के साथ ही उसके युगपत् भाव का भी प्रतिपादन करता है; अर्थात् कथन के प्रथम समय में वस्तु-स्वरूप की अस्तिरूपता एवं द्वितीय समय में उसके युगपत्भाव का विवेचन करना पाँचवें भंग का लक्ष्य है। इस भंग का लक्षण करते हुए कहा गया है- “घट आदि रूप धर्मी विशेष्यक और सत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्यत्व, यह इस भंग का लक्षण है। अर्थात् जिस ज्ञान में घट आदि धर्मी पदार्थ विशेष्य हों, और सत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषणीभूत हो ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करने वाला वाक्यत्व, यही पंचम भंग का लक्षण है; क्योंकि इस भंग में द्रव्यत्व की योजना से तो अस्तित्व और एक काल में ही द्रव्य पर्याय दोनों को मिलाकर योजना करने से अवक्तव्यत्व रूप विवक्षित है। सप्तभंगीनयप्रदीपप्रकरण में कहा गया है कि सत् अंश पूर्वक युगपत् सत् १. स्यादवक्तव्य (मेवेति) युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थ इति सदंशाऽसदंशयोईयोः समकाल प्ररूपणानिषेध प्रधानोऽयं भङ्गः, तथाद्वा विधिप्रतिषेधधर्मयोर्युगपत्प्रधान भूतयोरेकस्य पदार्थस्य युगपद्विधिनिषेधद्वय इति प्रधान विधानविवक्षायां तादृक्शब्दस्या ( भावना ) निर्वचनीयात्वादवक्तव्यं घटादि वस्तु ।" -सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरणम्, पृ० १६ । २. "घटादिरूपैकर्मिविशेष्यकसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षम् । तत्र द्रव्यार्पणादस्तित्वस्य युगपद् द्रव्यपर्यायार्पणादवक्तव्यत्वस्य च विवक्षितत्वात् । -सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ७१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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