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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
का स्पर्श होता है। दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दष्टि से जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह तत्तत् सप्तभंगियों में जुदा-जुदा ही है, यानी सत् और असत् को युगपत् न कह सकने के कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक भंग से जुदा होगा। अवक्तव्य और वक्तव्य को लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमें का अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्य को युगपत् न कह सकने के कारण ही फलित होगा, वह भी एक धर्म रूप ही होगा । सप्तभंगी में जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मों के युगपत् कहने की असामर्थ्य के कारण फलित होने वाला ही विवक्षित है। वस्तु के पूर्णरूप वाला अवक्तव्य भी यद्यपि एक धर्म ही होता है, पर उसका इस सप्तभंगी वाले अवक्तव्य से भेद है। उसमें भी पूर्णरूप से अवक्तव्यता और अंशरूप से वक्तव्यता की विवक्षा करने पर सप्तभंगी बनायी जा सकती है। किन्तु निरुपाधि अनिर्वचनीयता और विवक्षित दो धर्मों को युगपत् कह सकने की असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यता में व्याप्य-व्यापक रूप से भेद तो है ही।"
इस प्रकार यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि विवक्षित सप्तभंगी में जो अवक्तव्य है वह जैन-दर्शन में अभिकल्पित समस्त अवक्तव्यों से भिन्न और विशिष्ट है। वह वस्तु के अस्ति और नास्ति रूप दो और केवल दो धर्मों के युगपततः प्रतिपादन की अशक्यता को स्पष्ट करता है। इसलिए विभिन्न अपेक्षाओं, स्थान परिवर्तनों व वस्तु के समग्र स्वरूप के आधार पर उसका विभिन्न अर्थ करना युक्ति संगत नहीं है। जैन-ग्रन्थों में भी तो जहाँ-जहाँ उक्त सप्तभंगी की व्याख्या है। वहाँ-वहाँ भी अवक्तव्य के यही अर्थ प्राप्त होते हैं । तब उसे विभिन्न अर्थवाला ठहराना कहाँ तक उचित है ? स्याद्वादमंजरी में कहा गया है-"एक वस्तु के अस्तित्व-नास्तित्व दो धर्मों के युगपत् प्रधानता से अर्पित करने वाले शब्द के अभाव से जीवादि वस्तु अवक्तव्य हैं।"१' 'सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरण" में भी यही कहा गया है कि युगपत् विधि-निषेध की कल्पना करने वाला स्यादवक्तव्य यह चौथा भंग है। यह भंग वस्तु के सत् अंश और असत् अंश दोनों की एक काल
१. द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्व धर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयार्पिताभ्याम् एकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्यासम्भवाद् अवक्तव्यं जीवादिवस्तु ।"
-स्याद्वादमंजरी, श्लोक २३ की टीका ।
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