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________________ जैन न्याय में सप्लभंगी १६५ "वचनातीत", आदि कह देता है या मौन धारण कर लेता है।"' पुनः उन्होंने अवक्तव्य के दूसरे अर्थ को प्रस्तुत करते हुए कहा है-"अवक्तव्य" का अर्थ अस्ति एवं नास्ति का युगपत् वर्णन करने की शाब्दिक अक्षमता है। दोनों अर्थों में वस्तुतत्त्व के स्वरूप-प्रकाशन में वाणी की असमर्थता को ही "अवक्तव्य" कहा जायेगा, लेकिन पहले अर्थ में "अवक्तव्य" वाणी सामान्य एवं व्यापक असमर्थता है, अन्तिम अर्थ में "अवक्तव्य" दो धर्मों को युगपत् नहीं कह सकने की दृष्टि" ।२ यद्यपि इन दोनों अवक्तव्यों के भी मूल में युगपतता ही अभिप्रेत है तथापि ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं एक सामान्य है तो दूसरा विशेष; एक समष्टि है तो दूसरा व्यष्टि । इतना ही नहीं, जैन-दर्शन के अनुसार वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप को लेकर जितने भी अवक्तव्य बनेंगे वे सभी एक दूसरे से भिन्न होंगे। इसलिए अस्ति और नास्ति रूप धर्मों से बनने वाली सप्तभंगी में प्रयुक्त अवक्तव्य अन्य सभी अवक्तव्यों से भिन्न है। इसलिए इस अवक्तव्य के विभिन्न अर्थ नहीं हो सकते हैं। चाहे वह तीसरे स्थान पर हो या चौथे स्थान पर हो, किन्तु उसके अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। वह हमेशा अस्ति और नास्ति के सहार्पण की असमर्थता को ही अभिव्यक्त करता है। प्रो० महेन्द्र कुमार जैन ने इसे अन्य समस्त अवक्तव्यों से विशिष्ट और एक अर्थवाला सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है "अवक्तव्य भंग के दो अर्थ होते हैं एक तो शब्द की असामर्थ्य के कारण वस्तु के अनन्तधर्मा स्वरूप को वचनागोचर, अतएव अवक्तव्य कहना और दूसरा विवक्षित सप्तभंगी में प्रथम और द्वितीय भंगों के युगपत् कह सकने की सामर्थ्य न होने के कारण अवक्तव्य कहना । पहले प्रकार में वह एक व्यापक रूप है जो वस्तु के सामान्य पूर्ण रूप पर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दृष्टि से होने के कारण वह एक धर्म के रूप में सामने आता है अर्थात् वस्तू का एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी, जो शेष धर्मों के द्वारा प्रतिपादित होता है । यहाँ तक कि "अवक्तव्य' शब्द के द्वारा भी उसी १. दार्शनिक त्रैमासिक वर्ष १८, अंक २, अप्रैल १९७२, पृ० ११३ । २. वही। ३. जैन-दर्शन, पृ० ३७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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