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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि उसे अचेतन कैसे कहा जा सकता है। कम से कम आत्मा या जोव, जो चैतन्य स्वरूप है उसे अचेतन तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जीव में अचेतना का अत्यन्त अभाव है । अतः जीव को चेतन-अचेतन दोनों कहना ठीक नहीं है। इसी प्रकार भव्यत्व और अभव्यत्व धर्म को भी एक आत्माश्रयी सिद्ध करना विरोधपूर्ण है। इन्हीं विरोधों के कारण प्राचीनआचार्यों में भ्रान्तियाँ उत्पन्न हुई थीं। किन्तु यहाँ भी जैन-आचार्यों का आशय ऐसा नहीं था। उन्होंने सभी विरोधी धर्मों को सभी वस्तुओं में स्वीकार नहीं किया है। विशेष रूप से चेतन-अचेतन जैसे विरोधी धर्म युगलों को आत्मा आदि में तो नहीं ही स्वीकार किया है। क्योंकि धवला में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि "कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहना सम्भव है ? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाये तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक साथ आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए । किन्तु जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा से युगपततः भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।' कुछ आचार्यों को अस्तित्व और नास्तित्व धर्म युगल में भी विरोध प्रतीत होता है । किन्तु इसे यहाँ इस प्रकार समझना चाहिये कि अस्तित्व धर्म से जैन-आचार्यों का आशय स्वचतुष्टय से वस्तु में स्व सत्ताक धर्मों की सत्ता है और नास्तित्व या परचतुष्टय से वस्तु में पर सत्ताक धर्मों का अभाव है। जैसे स्वचतुष्टय से कुर्सी में कुसित्व का सद्भाव है यह अस्तित्व का सूचक है, और परचतुष्टय से कुर्सी में मेजत्व का अभाव है यह नास्तित्व का सूचक है। अतः इस प्रकार समझने से इनमें भी कोई विरोध नहीं आता है। इसी प्रकार अन्य धर्म युगलों को भी समझना चाहिए। (स) प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना ___ सप्तभंगी में प्रत्येक भंग का क्या उद्देश्य है और क्या विधेय है। उसके
१. (अ) धवला, पु० १, खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ ।
(ब) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १, पृ० ११३ ।
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