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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
द्वारा किसका कथन किया जा रहा है घट या घट-धर्म का ? इसका स्पष्टीकरण नहीं हुआ था। इस अस्पष्टता के कारण भी आचार्यों में भ्रान्तियां उत्पन्न हुई थीं। (द) प्रत्येक भंग को एक निश्चित मूल्य न प्रदान करना
सप्तभंगी के प्रत्येक भंगों के मूल्यों का स्पष्टीकरण नहीं किया गया था कि उसके अलग-अलग भंगों के द्वारा पृथक-पृथक कौन-कौन सा नया ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक भंग का अलग-अलग क्या मूल्य है। उनके अलग-अलग क्या प्रयोजन हैं। इस तथ्य की अस्पष्टता भी उसके संदर्भ में भ्रान्ति उत्पन्न होने का एक कारण है । (य) "स्यात्" पद को अनेकार्थक मानना
जैन-आचार्यों ने अपने प्रत्येक कथन के परिमाणक के रूप में "स्यात्" पद को प्रस्तुत किया है। चाहे वहाँ एक धर्म का कथन करना हो या अनेक धर्म का, स्वीकारात्मक कथन हो या निषेधात्मक, यहाँ तक कि अपेक्षा बदलने के बाद भी परिमाणक के रूप में एक ही प्रतीक का प्रयोग सर्वत्र किया गया है | किन्तु प्रतीक रूप में "स्यात्" पद को कहाँ-कहाँ
और किन-किन अर्थों में और किन-किन अपेक्षाओं के सूचन हेतु प्रयुक्त किया जायेगा इसका स्पष्ट उल्लेख उन्होंने नहीं किया था। अतः एक निश्चित अर्थ और एक निश्चित सीमा के अभाव में भी "स्यात्" पद के अनेक अर्थ होने लगे; जिसके कारण सप्तभंगी में विभिन्न प्रकार का दोष उत्पन्न हुआ। वस्तुतः इन कमियों पर यदि जैन-आचार्यों ने पहले ही ध्यान दिया होता तो निश्चय ही इसमें किसी प्रकार का संशय आदि दोष उत्पन्न न हुआ होता। "स्यात्" पद का वास्तविक अर्थ
हमने उपर्यक्त विवेचन में देखा कि समन्तभद्र, अकलंक, अमतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने “स्यात्" शब्द को अनेकान्तता का द्योतक, विवक्षा या अपेक्षा का सूचक, कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक माना है न कि संशयपरक या अनिश्चयात्मक अर्थ का द्योतक या प्रतिपादक। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन-दार्शनिकों को 'स्यात्" शब्द का अर्थ संदेह, संभवतः, संशयादि कभी भी अभिप्रेत नहीं रहा है। यद्यपि
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