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________________ १३४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ३- तदुभयारम्भ ४- अनारम्भ -भगवती भाग १,१:१ : ४७ । १- गुरु २- लघु ३- गुरु-लघु ४- अगुरु-लघु -भगवती भाग १,१:९ : २८९ । १- सत्य २- मृषा ३- सत्यमृषा ४- असत्यमृषा -भगवती भाग ५, १३ : ७ : १२ । १- आत्मांतकर २- परांतकर ३- आत्मपरांतकर ४- नोआत्मांतकर-परांतकर -स्थानांग २८७, २८९, ३२७, ३४४, ३५५, ३६५ । इस प्रकार हमने उपर्युक्त विवेचन में देखा कि तत्त्व के विषय में इन चार [सत्, असत्, सदसत् (उभय) और अनुभय] पक्षों के प्रयोग की परम्परा ऋग्वेद से लेकर महावीर के समय तक चली आयी है जिनका स्पष्टीकरण उपर्युक्त उदाहरणों में हो चुका है और महावीर ने मात्र उन्हीं पक्षों को ग्रहण किया है जो वेदों में आ चुके थे और उन्होंने जिन नये पक्षों को दिया है वे मात्र उन्हीं के संयोग हैं। उनमें अन्तर सिर्फ इतना ही है कि ऋग्वैदिक एवं उपनिषद्कालीन ऋषियों ने तत्त्व के विषय में केवल एक-एक पक्ष का ही समर्थन किया था। प्रत्येक पक्ष को स्वतन्त्र रूप से मानने वाले भिन्न-भिन्न ऋषि थे, अर्थात् प्रत्येक पक्ष की अपनी अलग-अलग विचारधारायें थीं। जबकि महावीर ने एक ही तत्त्व को उक्त सभी दृष्टियों (पक्षों) से देखा है । पं० दलसुख मालवणिया का कहना है कि "उपनिषदों में माण्डूक्य को छोड़कर किसी एक ऋषि ने उक्त चारों पक्षों को स्वीकृत नहीं किया। किसी ने सत् पक्ष को, किसी ने असत् पक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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