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जैन न्याय में सप्तभंगी
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३. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक दोनों दृष्टिशाश्वत तो बताऊँ अनुपयोगी है, यों से क्रमशः विचार और अशा- (अनिश्चय, अव्याकरणीय, करने पर शाश्वत भी श्वत है ? अज्ञात) अकथनीय) है और अशाश्वत भी
४. क्या लोक मैं जानता होऊँ, अव्याकृत दोनों रूप तो बताऊँ (अज्ञात, नहीं हैं, अनिश्चय) अनुभय है?
हां, ऐसा कोई शब्द नहीं, जो लोक के परिपूर्णस्वरूपको एक साथ समग्रभाव से कह सके, अतः पूर्ण रूपसे वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है।
इसके साथ ही, स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में पं० राहुल सांकृत्यायन भी वही त्रुटि किये हैं जो पूर्व के आचार्यों ने किया था। जैन-बौद्ध दर्शन और पाली-प्राकृत भाषा के अछूते लोग यदि इस तरह की त्रुटि करें तो करें, पर यदि इन विषयों के मर्मज्ञ लोग भी इस तरह की त्रुटि करते रहें तो फिर उनमें सुधार कैसे लाया जा सकता है। पं० राहुल सांकृत्यायन ने भी "स्यात्" शब्द का "हो सकता है" अर्थ किया है। जो कि जैन-दर्शन को वांछनीय नहीं है। इसका पूर्णतः विवेचन हमने पिछले अध्याय में किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पं० राहुल सांकृत्यायन को सप्तभङ्गी के विषय में कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं है। इसलिए भी वे सप्तभङ्गी को संजय के चतुर्भङ्गी से निष्पन्न बताना चाहते हैं जो कि सर्वथा अनुचित है । यह सत्य है कि जैन-दर्शन की सप्तभङ्गी चतुर्भङ्गी से ही विकसित हुई है। फिर भी उसकी अपनी एक मौलिक दृष्टि है, जो न तो संजयबेलट्टिपुत्त के दर्शन में उपलब्ध है और न बुद्ध के चिन्तन में । उस चतुभंगी का उल्लेख जैन-आगमों में भी है। इसे निम्नलिखित उद्धरण में देखा जा सकता है :(१) १- आत्मारम्भ
२-परारम्भ
१. देखिए, दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९७ ।
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