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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या
बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है। तृतीय रूप में अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है।
उपयुक्त व्याख्या यद्यपि जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए बहुत ही उपयोगी है। किन्तु आधनिक तर्कशास्त्र के दष्टिकोण से इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। सर्वप्रथम, जैन-सप्तभंगी हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य तो हैं नहीं। दूसरे, इसका उक्त प्रतीकीकरण हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के किस सिद्धान्त पर आश्रित है ? इसका कोई स्पष्ट उल्लेख उपयुक्त व्याख्या में नहीं है। साथ ही, यदि अपेक्षा सूचक स्यात् पद को हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के पूर्वपद (ऐण्टिसीडेन्ट) के रूप में ग्रहण किया जाय तो उससे सप्तभंगी का जो रूप बनता है वह रूप यद्यपि उपर्युक्त प्रतीकीकरण से कुछ मिलता-जुलता ही होगा तथापि इस विषय में उसका विकास कैसे किया जाय ? यह बात समझ में नहीं आती। दूसरे, ऐसा करने से सप्तभंगी के अपने भंगों के बीच कोई आन्तरिक सम्बन्ध नहीं रह जायेगा । वे एक दूसरे से स्वतन्त्र हो जायेंगे। जबकि सप्तभंगी के सातों भंग एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं नहीं। हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर सप्तभंगी का जो प्रतीकात्मक रूप बनता है वह एकदम काल्पनिक जैसा प्रतीत होता है। उसे हेतुफलाश्रित के किसी भी सिद्धान्त से जोड़ा नहीं जा सकता है। अतएव प्रमाण के अभाव में सप्तभंगी की व्याख्या हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर करना अयुक्त ही होगा।
आधुनिक बहु-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र की एक प्रशाखा सम्भाव्यता का तर्कशास्त्र भी है। उस संभाव्य तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में सप्तभंगी का एक अध्ययन डॉ० आर० एन० मुकर्जी ने किया है। उन्होंने सप्तभंगी के प्रत्येक कथन को आंशिक मानकर यह विचार प्रस्तुत किया कि उसके प्रत्येक भंग को यदि एक साथ किया जाय तो उससे पूर्ण सत्ता का बोध होता है; अर्थात् उसके एक-एक भंग से सत्ता के एक-एक अंश का ज्ञान होता है और उन एक-एक भंगों को जोड़ने से पूर्ण सत्ता का ज्ञान हो जाता है । १. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४३ ।
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