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समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८७
(३) प्रथम भंग - अ 1
31 वि1 है ।
द्वितीय भंग - अ1 - 31
~
वि 1 नहीं है ।
उदाहरण प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म की पुष्टि हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीयभंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना । जैसे— रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है । रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतना है । अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है । अथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है । उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण नहीं है ।
(४) प्रथम भंग - अ 1 द्वितीय भंग - अ2
1 है ।
31 नहीं है ।
उदाहरण - जब प्रतिपादित कथन देश या काल दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश, काल आदि की अपेक्षा को बदल कर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर देना । जैसे- १५ अगस्त १९४७ के 'पश्चात् से पाकिस्तान का अस्तित्व है । १५ अगस्त १९४७ के पूर्व पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था ।
द्वितीय भंग के उपर्युक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है । अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम रूप में एक ही धर्म (विधेय) का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहाँ दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध धर्मों (विधेयों) का विधान होता है । प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षाभेद से कभी उपस्थित रहें और कभी उपस्थित नहीं रहें । इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हों ही । तीसरा रूप तब बनता है जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति ही न हो । चतुथं रूप की आवश्यकता तब होती है जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं हो । द्वितीय भंग में पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म ( विधेय) वही रहता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है । द्वितीय रूप में अपेक्षा
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