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१८६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या स्यात् नास्ति च अ25 उावित नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्य
0(10अ2)य उ1 विचार करते हैं तो अवक्तव्य है । या आत्मा नित्य नहीं है किन्तु अ25 उवित नहीं है यदि अनन्त अपेक्षा की 0(अ)य
दृष्टि से विचार करते हैं अवक्तव्य है। तो आत्मा अवक्तव्य है। स्यात् अस्ति च नास्ति 1- उविहै0अ2 यदि द्रव्य दृष्टि से च अवक्तव्य च - उावित नहीं है। विचार करते हैं तो
(102) य उ आत्मा नित्य है और यदि अवक्तव्य है। पर्याय की दृष्टि से विचार या
करते हैं तो आत्मा नित्य आउ वित है0अ2 नहीं हैं; किन्तु यदि अन
उवित नहीं है0 न्त अपेक्षाओं की दृष्टि से (अ)यउ विचार करते हैं तो आत्मा
अवक्तव्य है। अवक्तव्य है। तत्पश्चात् उन्होंने द्वितीय भंग की निम्नलिखित चार प्रकार से व्याख्या को है :(१) प्रथम भंग-17 उ1 वि1 है।
द्वितीय भंग-अ25 उावित नहीं है । उदाहरण-प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे-द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है पर्याय की दृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (२) प्रथम भंग-15 उ वित है।
द्वितीय भंग-15 उ2 - वि। है।
- यह चिह्न प्रथम भंग के विधेय के विरुद्ध विधेय का सूचक है जैसे नित्य के स्थान पर अनित्य । उदाहरण-प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म (विधेय) का प्रतिपादन कर देना है। जैसे-द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है, पर्याय दृष्टि से घड़ा अनित्य है ।
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