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२०० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या दार्शनिकों ने स्वीकारात्मक माना है और किसी-किसी ने तो इसे द्विधा निषेध से प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन के द्वारा प्रदत्त नास्तिभङ्ग का प्रतीकात्मक प्रारूप द्रष्टव्य है । वैसे हम इसका विवेचन पूर्व में कर चुके हैं। उन्होंने लिखा है कि नास्ति भङ्ग निम्नलिखित चार प्रारूप में बनते हैं
(१) अ'31 वित नहीं है, (२) अ- 31-वि। है, (३) अ- 31-वित नहीं है (यह द्विधा निषेध का रूप है), (४) अ उ नहीं है।
इनमें भी मुख्य रूप से दो ही प्रारूपों को माना जा सकता है। एक वह है जिसमें स्यात् पद चर है जिसके कारण अपेक्षा बदलती रहती है। यदि चर रूप स्यात् पद को P1,P आदि से दर्शाया जाय तो अस्ति और नास्ति भङ्ग का निम्नलिखित रूप बनेगा
१-स्यादस्ति = P1 ( A) २- स्यान्नास्ति = P (A)
इसे अधोलिखित दष्टान्त से अच्छी तरह समझा जा सकता है--स्यात् आत्मा नित्य है (प्रथम भंग) और स्यात् आत्मा नित्य नहीं है (द्वितीय भंग)। इन दोनों कथनों में अपेक्षा बदली गयी है। जहाँ प्रथम भंग में द्रव्यत्व दृष्टि से आत्मा को नित्य कहा गया है, वहीं दूसरे भंग में पर्यायदृष्टि से उसे अनित्य (नित्य नहीं) कहा गया है। इन दोनों ही वाक्यों का स्वरूप यथार्थ है; क्योंकि आत्मा द्रव्य-दृष्टि से नित्य है तो पर्याय-दृष्टि से अनित्य भी है। वस्तुतः यहाँ द्वितीय भंग का प्रारूप निषेध रूप होगा। अब यदि उक्त दोनों भंगों को मूल भंग माना जाय और अवक्तव्य को -C से दर्शाया जाय तो सप्तभंगो का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्नलिखित रूप से तैयार होगा
१-स्यादस्ति = P1 ( A) २-स्यान्नास्ति = p* (A) ३-स्यादस्ति च नास्ति = P3 (A-A) ४-स्यादवक्तव्यम् = P+ (-C) ५-स्यादस्ति च अवक्तव्यम् = P (A-C) ६-स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P° (-A-C) ७-स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् =P' (A -A-C)
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