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समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगो : एक मूल्यांकन १९९ से नास्तित्व भी वस्तु का स्वरूप नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार पर-रूप से नास्तित्व वस्तु का स्वरूप होता है, उसी प्रकार स्व-रूप से भी नास्तित्व वस्तु का धर्म बन जायेगा"।' इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्मों से युक्त रहना वस्तु का स्वभाव या स्वरूप है; अर्थात् वस्तु में स्वचतुष्टय का भाव और पर-चतुष्टय का अभाव होता है। अतः इन दोनों ही धर्मों को एक दूसरे का निषेधक या व्याघातक (कान्ट्राडिक्टरी) नहीं कहा जा सकता है। किन्तु जब इन भावात्मक और अभावात्मक धर्मों के कहने की बात आती है तब हम स्वचतुष्टय रूप वस्तु के भावात्मक गुणधर्मों को एक शब्द "स्यादस्ति" से कह देते हैं और जब पर-चतुष्टय रूप वस्तु के अभावात्मक गुण-धर्मों को कहने की बात आती है तब उन्हें "स्यान्नास्ति" शब्द से सम्बोधित करते हैं। किन्तु, जब उन्हीं धर्मों को एक साथ (युगपत् रूप से) कहना होता है तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना पड़ता है । वस्तुतः अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य, ये ही सप्तभङ्गी के तीन मूल भङ्ग हैं।
अब वस्तु में स्व चतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को A, पर चतुष्टय रूप धर्मों को B और उनके अभाव को -B तथा स्व चतुष्टय और पर चतुष्टय रूप भावात्मक और अभावात्मक धर्मों को युगपत् रूप से कहने में भाषा की असमर्थता अर्थात् अवक्तव्यता को-C से प्रदर्शित करें तो और स्यात् पद को P से दर्शायें तो तीनों मूल भङ्गों का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा
स्यादस्ति = P ( A) स्यान्नास्ति = P (-B) स्यादवक्तव्य = P (-C)
इस प्रकार प्रथम भंग में स्व-चतुष्टय का सद्भाव होने से उसे भावात्मक रूप में A से कहा गया है। दूसरे भङ्ग में पर चतुष्टय का निषेध होने से अभावात्मक रूप में-B से कहा गया है और तीसरे मूलभूत भङ्ग में वक्तव्यता का निषेध होने से-C से कहा गया है। इस प्रकार सप्तभङ्गी के प्रतीकीकरण के इस प्रयास का अर्थ उसके मूल अर्थ के निकट बैठता है। __अब विचारणीय विषय यह है कि स्यान्नास्ति भङ्ग का वास्तविक प्रारूप क्या है ? कुछ तर्कविदों ने उसे निषेधात्मक बताया है तो कुछ १. स्याद्वादमञ्जरी. पृ० २२६ ।
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