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समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन २०१ अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य को -C से क्यों प्रदर्शित किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अवक्तव्य वक्तव्य पद का निषेधक है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में किसी निषेध पद को विधायक प्रतीक से दर्शाने का विधान नहीं है। वहाँ पहले विधायक पद को विधायक प्रतीक से दर्शाकर निषेधात्मक बोध हेतु उस विधायक पद का निषेध किया जाता है। इसलिए पहले वक्तव्य पद हेतु प्रतीक को प्रस्तुत कर अवक्तव्य के बोध के लिए उस C का निषेध अर्थात् -C किया गया है। अब यदि यह कहा जाय कि ऐसा मानने पर सप्तभंगी, सप्तभंगी नहीं, बल्कि अष्टभंगी बन जायेगी तो ऐसी बात मान्य नहीं हो सकती; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र में सप्तभंगी की ही परिकल्पना है अष्टभंगी की नहीं; और वक्तव्य रूप भंग सप्तभंगी में इसलिए भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि अवक्तव्य के अतिरिक्त शेष भंग तो वक्तव्य ही हैं । अर्थात् वक्तव्यता का बोध सप्तभंगो के शेष भंगों से होता है। इसलिए वक्तव्य भंग को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वह तो प्रथम अस्ति, द्वितीय नास्ति और तृतीय क्रमभावी अस्ति नास्ति के रूप में उपस्थित है।
दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार “स्यात्" पद अचर है । उसके अर्थ अर्थात् भाव में कभी भी परिवर्तन नहीं होता है। वह प्रत्येक भंग के साथ एक ही अर्थ में प्रस्तुत है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण को मानने से नास्ति भंग में द्विधा निषेध आता है जिसका निम्न प्रकार से प्रतीकीकरण किया जा सकता है--
१-स्यादस्ति = P ( A) २-स्यान्नास्ति = P-(-A)
अब इसका यह प्रतीकात्मक रूप निम्नलिखित दृष्टान्त से पूर्णतः स्पष्ट हो जायेगा । जैसे-"स्यात् आत्मा चेतन है" (प्रथम भंग) और "स्यात् आत्मा अचेतन नहीं है" (द्वितीय भंग)। अब यदि हम आत्मा की चेतना का प्रतीक A मानें तो उसकी अचेतना का प्रतीक -A होगा और इसी प्रकार "आत्मा अचेतन नहीं है" का प्रतीक-(-A) हो जायेगा। इस प्रकार इन वाक्यों में हमने देखा कि वक्ता की अपेक्षा बदलतो नहीं है। वह दोनों ही वाक्यों की विवेचना एक ही अपेक्षा से करता है। इस दृष्टिकोण से ऊपर के उक्त दोनों वाक्यों का प्रारूप यथार्थ है। अब यदि इन
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