________________
२०२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या दोनों वाक्यों को मूल मानें तो सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्न प्रकार का होगा
१-स्यादस्ति = P ( A) २-स्यान्नास्ति = Pv ( A) ३-स्यादस्ति च नास्ति = P (An (A) ४- स्यादवक्तव्यम् = P (~C) ५- स्यादस्ति च अवक्तव्यम् - P (A:--C) ६- स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P (~(~A) ~C) ७- स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = P [A:-(~A) ~C]
इस प्रतीकीकरण में A और ~~A वक्तव्यता के और ~ C अवक्तव्यता के सूचक हैं। किन्तु स्यादस्ति और स्यान्नास्ति को क्रमशः A और WA अथवा A और . A मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है; क्योंकि नास्ति भंग परचतुष्टय का निषेधक है और अस्ति भंग स्वचतुष्टय का प्रतिपादक है। यदि उन्हें A और ~A का प्रतीक दिया जाय तो उसमें व्याघातकता भी प्रतीत होती है। जबकि वस्तुस्थिति इससे भिन्न है । अतः स्व-चतुष्टय और पर चतुष्टय के लिए अलग-अलग प्रतीक अर्थात् A और B प्रदान करना अधिक युक्तिसंगत है। इसीलिए हमने स्वचतुष्टय के लिए A और परचतुष्टय के निषेध के लिए - B माना है। यद्यपि मेरा यह दावा नहीं है कि मेरा दिया हुआ उपर्युक्त प्रतीकीकरण अन्तिम एवं सर्वमान्य है, उसमें परिमार्जन की सम्भावना हो सकती है। आशा है, विद्वानगण इस दिशा में अधिक गम्भीरता से विचार कर सप्तभंगी को एक सर्वमान्य प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान करेंगे, ताकि उसके सम्बन्ध में उठने वाली भ्रान्तियों का सम्यक्तया निराकरण हो सके। ___ अब सप्तभंगी की यह प्रतीकात्मकता संभाव्यता-तर्कशास्त्र के उपर्युक्त प्रतीकीकरण के अनुरूप है । इसलिए यह उससे तुलनीय है। जिस प्रकार सप्तभंगी में उत्तर के चारों प्रकथन पूर्व के मलभत तीनों भंगों के सांयोगिक रूप हैं। प्रत्येक कथन को "च" रूप संयोजन के द्वारा जोड़ा गया है। उसी प्रकार संभाव्यता-तर्कशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त में तीन मूलभूत भंगों की कल्पना करके आगे के भंगों की रचना में संयोजन अर्थात् कन्जंक्शन का ही पूर्णत: व्यवहार किया गया है । जिस क्रम में सप्तभंगी की विवेचना और विस्तार है उसी क्रम का अनुगमन संभाव्यता-तर्कशास्त्र का उक्त सिद्धान्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org