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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से दो बातें फलित होती हैं (१) नय व्यवस्था प्रमाण में ही होती है अप्रमाण में नहीं । (२) नय हमेशा प्रमाण का अंश रूप ही रहा करता है । वह कभी पूर्ण रूप (पूर्ण सत्य रूप) नहीं होता ।
चूंकि नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एकांश का प्रतिपादन करता है, इसलिए उसका प्रमाणांश होना स्वाभाविक और स्वतः सिद्ध है । नय के प्रमाणांश सिद्ध होने से ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नय व्यवस्था सांश प्रमाण में ही होती है निरंश प्रमाण में नहीं। क्योंकि निरंश ज्ञान का अखण्ड भाव से रहने के कारण उसमें अंशों का विभाजन नहीं हो सकता । इसी नय व्यवस्था के कारण जैन आचार्यों ने ज्ञान के— सकलादेशी और विव लादेशी - दो विभाग करके सकलादेशी ज्ञान को प्रमाण के अधीन और विकलादेशी ज्ञान को नय के अधीन माना है ।" विकलादेशी ज्ञान अर्थ ( विषय ) के एक देश विशेष से सम्बन्धित होने के कारण नय कहलाता है ।
जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक, भावाभावात्मक, एकानेकात्मक है । तब यदि उसे कोई मात्र नित्य या मात्र अनित्य कहने लगे तो वह कथन एकान्तवादी होगा ही । किन्तु जैनाचार्यों ने एकान्तवादी कथन को असत्य माना है । वस्तुतः असत्य या एकान्तिक कथन और तज्जन्य ज्ञान दोनों, न तो प्रमाण हो सकता है और न तो प्रमाणांश ही । इसलिए उसे नय वाक्य न कहकर उसे दुर्नय कहा जाता है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि नय व्यवस्था प्रमाण में ही होती है अप्रमाण में नहीं ।
नय जिस विषय-वस्तु का प्रतिपादन करता है वह न तो पूर्ण वस्तु ही है और न वस्तु-स्वरूप से भिन्न ही है अपितु वह वस्तु का ही एक पक्ष
१. " सकलादेश: प्रमाणाधीनोविकलादेशो नयाधीनः । "
२.
"स्वार्थेक देश निर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः ।"
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सर्वार्थसिद्धि: १:६ की टीका.
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:४.
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