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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
प्रमाण वस्तु में अवस्थित रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, कनिष्ठ, ज्येष्ठ, सत्, असत्, एक, अनेक आदि समस्त धर्मों को अखण्ड रूप से जानता है। परन्तु नय अपनी विवक्षानुसार किसी एक धर्म का ही प्रतिपादन करता है। प्रमाण वस्तु में स्थित अनन्त धर्मों को निश्चित करता है और नय प्रमाण के द्वारा निश्चित किये गये अनन्त धर्मों में से अपने अभीष्ट धर्म का ही ग्रहण करते हुए शेष धर्मों की ओर से उदासीन रहता है । ____चूँकि प्रमाण व्यवस्था में पदार्थ का ज्ञान अखण्डभाव से (युगपत्) सम्पूर्ण अंशों का होता है और नय व्यवस्था में उसी का ज्ञान अखण्ड भाव से न होकर सखण्ड भाव से होता है। परन्तु क्या सखण्ड भाव रूप नय ज्ञान प्रमाण नहीं होता ? इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों का ऐसा विचार है कि प्रमाण और नय ये दोनों ही वस्तु के ज्ञान तो हैं किन्तु इन दोनों में अन्तर यह है कि किसी भी विषय को सर्वांश में स्पर्श करने वाला ज्ञान प्रमाण है और उसी विषय के किसी एकांश को स्पर्श करके चुप हो जाने वाला ज्ञान नय है। यही कारण है नय को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । फिर भी उसे अप्रमाण कहना ठीक नहीं; क्योंकि वह वस्तू के सम्बन्ध में जो आंशिक ज्ञान प्रदान करता है। वह भी तो सत्य ही होता है। अतः उसे न तो अप्रमाण (असत्य) कह सकते हैं और न प्रमाण (पूर्ण सत्य) ही। उसे प्रमाणांश या आंशिक सत्य कहना ही उचित है । जिस प्रकार घड़े में भरे हुए समुद्र-जल को न तो समुद्र ही कहा जा सकता है और न असमुद्र ही।' उसी प्रकार नय भी प्रमाण से उत्पन्न होकर वस्तु के सन्दर्भ में एकांश सत्य का प्रतिपादन करने से अप्रमाण तो नहीं है । किन्तु अंशग्राही होने के कारण प्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए उसे प्रमाणांश या सत्यांश कहना अधिक न्यायसंगत प्रतीत होता है। तत्त्वार्थदलोक्वातिक में कहा गया है कि "ज्ञानात्मक नय न तो अप्रमाण रूप होता है और न प्रमाण रूप ही होता है। किन्तु प्रमाण का एक देश (अंश) रूप ही होता है।"२ १. "नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ।”
नय विवरण, श्लोक ६ । २. "नाप्रमाणं प्रमाण वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाण क देशरतु सर्वथाप्यविरोधतः ॥"
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:२१ ।
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