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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास हैं।' मैं भूतकाल में था कि नहीं था ? मैं भूतकाल में क्या था? मैं भतकाल में कैसा था ? मैं भूतकाल में क्या होकर फिर क्या हुआ ? मैं भविष्यत् काल में होऊँगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् काल में क्या होऊँगा ? मैं हूँ कि नहीं ? मैं क्या हूँ? मैं कैसे हूँ? यह सत्त्व कहां से आया ? यह कहाँ जायेगा ?२ आदि प्रश्नों को उन्होंने असमीचीन कहा है । उनका कहना है कि "भिक्षुओं !(इन प्रश्नों को)असम्यक् प्रकार से धारण करने पर अनुत्पन्न आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव बढ़ते हैं।''३ अतएव इन आस्रव सम्बन्धी प्रश्नों में लगना साधक के लिए अनुचित है। इन सभी प्रश्नों को छोड़कर चार आर्य सत्यों में लगना ही निर्वाण फलदायक है। तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं? ऐसा प्रश्न अन्य तीथिकों को अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। उन्हें रूपादि का अज्ञान होता है। अतएव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादि को आत्मा समझते हैं या आत्मा को रूपादि युक्त समझते हैं; या आत्मा में रूपादि को समझते हैं; या रूप में आत्मा को समझते हैं जबकि तथागत वैसा नहीं समझते ५ अतः तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरों के ऐसे प्रश्न को वे अव्याकृत कहते हैं । मरणानन्तर रूप, वेदना आदि प्रहीण हो जाते हैं, अतएव अब प्रज्ञापना के साधन रूपादि के न होने से तथागत के लिए "है" या "नहीं है" ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणानन्तर तथागत "है" या "नहीं है" इत्यादि प्रश्नों को मैं अव्याकृत बताता हूँ। मरणानन्तर तथागत की स्थिति को अव्याकृत कहने का एक कारण यह भी हो सकता है कि परम तत्त्व कुछ इतना गुह्य है कि उसके आद्योपान्त का न तो ज्ञान
१. न हेतं, आवुसो अत्थसंहितं नादिब्रह्मचरियकं न निब्बिदाय, न विरागाय न
निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञायन सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति । तस्मा तं अब्याकतं भगवता" ति ।
संयुत्तनिकाय भाग २, १६:१२ । २. मज्झिमनिकाय भाग १, २:१ ( सब्बासवसुत्त) ३. वही ४. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २, ३३:१ ( वच्छगोत्तसंयुत्तं) ५. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २, ४४:८ ( व्याकत संयुत्तं ) ६. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:८ ( अव्याकत संयुत्तं )
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