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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
३. क्या लोक अन्तवान् है ? ४. क्या लोक अनन्त हैं ? ५. क्या जीव और शरीर एक है ? ६. क्या जीव और शरीर भिन्न है ? ७. क्या मरने के बाद तथागत होते हैं ? ८. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत होते हैं और नहीं होते ?
१०. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते? ये सभी प्रश्न निम्नलिखित चार ही प्रश्नों के अन्तर्गत आ सकते हैं
(१) लोक की नित्यता-अनित्यता का प्रश्न (२) लोक की सान्तता-अनन्तता का प्रश्न (३) जीव-शरीर के भेदाभेद का प्रश्न, और (४) जीव की नित्यता-अनित्यता का प्रश्न ।
ये ही प्रश्न बुद्ध के समय प्रमुख दार्शनिक प्रश्न थे। इन्हीं प्रश्नों को लेकर उन दिनों तरह-तरह के वाद-विवाद चल रहे थे। इन्हीं प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा था। उनके सम्मुख प्रमुख समस्या यह थी कि यदि लोक या जीव को मात्र नित्य कहा जाय तो शाश्वतवाद स्वीकार करना होगा और यदि उसे मात्र अनित्य कहा जाय तो वह अशाश्वतवाद या उच्छेदवाद होगा। जबकि दोनों ही वादों में उन्हें दोष दिखलायी दिया था। इसीलिए उन्होंने उन दोनों ही मतवादों के सम्बन्ध में कुछ कहना अनुचित समझा। उनको यह भय था कि विधेय रूप से कुछ भी कहने पर वे निश्चित ही किसी मतवाद में फंस जायेंगे। अतएव इन एकान्तिक मतवादों से बचने के लिए उन्होंने तात्त्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में मौन रहना ही ज्यादा उचित समझा। इस प्रकार बुद्ध ने तत्कालीन दार्शनिक प्रश्नों का या तो निषेधपरक उत्तर दिया अथवा उन प्रश्नों को ही अव्याकृत एवं असमीचीन कहकर टाल दिया। मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं? अथवा जीव नित्य है या नहीं ? इस तरह के प्रश्न को ही बुद्ध ने अनुपयोगी बताया है। उनका कहना है कि "ऐसा प्रश्न सार्थक नहीं, यह ब्रह्मचर्य के लिए, निवेद के लिए, अभिज्ञा के लिए, सम्बोधि के लिए और निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं हैं। इसीलिए मैं उन्हें अव्याकृत कहता
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