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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
२१ तब क्या है ? आप तो सभी प्रश्नों का उत्तर नकार में देते हैं, ऐसा क्यों ? तब पुनः गौतम ने कहा कि "दुःख स्वकृत है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवाद का अवलम्बन होता है और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तब इसका मतलब होगा कि किया किसी दूसरे ने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है। अतएव इन दोनों को छोड़कर मध्यम मार्ग का ही अनुगमन करना उचित है।' इस प्रकार भगवान् बुद्ध ने किसी एक मतवाद में पड़ जाने के भय से तत्कालीन सभी मन्तव्यों का निषेध कर दिया क्योंकि उनको यह प्रतीत हुआ कि वे सभी मन्तव्य एकान्तिक हैं और जो भी एकान्तिक हैं वे असत्य हैं । अतः ये त्याज्य हैं। बुद्ध की यह एकान्तवादी दृष्टि की आलोचना जैनों की एकान्तवादी दृष्टि की आलोचना के निकट बैठती है। जैनदर्शन को भी यह मान्यता है कि सभी एकान्तिक दृष्टियाँ असत्य होती हैं। जैनदर्शन भी सभी एकान्तिक दृष्टियों का निषेध करता है । इसका पूर्णरूपेण स्पष्टीकरण हम आगे प्रस्तुत करेंगे । (ख) अव्याकृतवाव
भगवान् बद्ध तत्कालीन तत्त्वमीमांसा सम्बन्धी प्रश्नों के सन्दर्भ में या तो मौन रहे अथवा उन्हें असमुचित कहकर टाल दिया और यदि उनके सन्दर्भ में कुछ कहना ही आवश्यक हुआ तो उन्होंने उन्हें अव्याकृत या अव्याख्येय कहा । उनके वे सभी अव्याकृत प्रश्न अधोलिखित हैं।'
१. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ?
१. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २:१७, (अचेलकस्सप सुत्तं)।
"सस्सतो लोको' ति पि, "असस्सतो लोको" ति पि, 'अन्तवा लोको" ति पि, “अनन्तवा लोको" ति पि, "तं जीवं तं सरीरं ति पि, अझं जीवं अनं सरीरं" "ति पि, "होति तथागतो परं मरणा" “ति पि, “न होति तथागतो परं मरणा" ति पि, होति च न च होति तथागतो परं मरणा" ति पि, नेवहोतिन न होति तथागतो परं मरणा" ति पि तानि ये भगवा न व्याकरोति ।
-मज्झिमनिकाय पालि भाग २, १३:१ (चूळमालुक्यसुत्त)।
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