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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
किये । वे कहते थे कि पंडित किसी भी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता । "सुत्तनिपात" में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं पण्डित इन सबमें नहीं पड़ता । दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्ति रहित वह क्या ग्रहण करें ।"" अतः वे उन नाना वादों के सन्दर्भ में केवल इतना ही कहकर रह गये कि ये सभी वाद ठीक नहीं हैं । सुत्तनिपात में ही कहा गया है कि "मैं यह नहीं कहता कि "यही सत्य है " " क्योंकि उनको ऐसा आभास हुआ था कि सब कुछ विद्यमान है ऐसा कहना एक अन्त है और सब कुछ शून्य है, ऐसा कहना दूसरा अन्त हैं । इसीलिए वे इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग से उपदेश करते थे । जीव, जगत्, सुख, दुःख आदि के सन्दर्भ में बुद्ध से जो भी प्रश्न किये जाते थे वे लगभग उन सभी प्रश्नों के उत्तर निषेध रूप से ही देते थे । उनके इस विचार का स्पष्टीकरण निम्नलिखित उद्धरण से भी होता है :
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गौतम ! क्या दुःख स्वकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है ।
गौतम ! क्या दु:ख परकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है ।
गौतम ! क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है ।
गौतम ! क्या दुःख अस्वकृत और अपरकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है ।
१. " या काचिऽमा सम्मुतियो पुथुज्जा | सब्बाऽव एता न उपेति विद्धा । अनूपयो सो उपयं किमेयय । दिट्टे सुते खन्तिमकुब्जमानो || ३ ||
२. " न चाहमेतं तथियन्ति ब्रूमि" ।
- सुत्तनिपात - ५०.५.
३. "सब्बमत्थी" ति खो, कच्चान, अयमेको अन्तो । "सब्बे नत्थी'ति अयं दुतियो अन्तो । एते ते, कच्चान, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो. धम्मं देसेति । "
-- संयुत्त निकाय, भाग २, १२:१५ ( कच्चानगोत्तसुत्त)
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-सुत्तनिपात, ५१:३.
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