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________________ २४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या ही संभव है और न इन अशक्त शब्दों (भाषा) से कथन ही संभव है, क्योंकि वह तो अपरिमेय है, अगम्य है, अगोचर है फिर उसका विधिमलक वर्णन भी तो उसको संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध कर संकुचित कर देता है । बुद्ध ने कहा है कि जैसे गंगा के बालू की नाप नहों; जैसे समुद्र की गहराई का पता नहीं, वैसे ही मरणोत्तर तथागत भी गम्भोर है। अप्रमेय है । अतएव अव्याकृत हैं।' इसी प्रकार जीव और शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को भी उन्होंने अव्याकृत बताया है। उनका कहना था कि जोव और शरीर एक है या भिन्न ? इस विषय में भी कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; क्योंकि "यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाय तो ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं और यदि अभिन्न माना जाय तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं । अतएव इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग का अनुगमन करना ही उचित है। इस प्रकार बुद्ध ने जीव तथा शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को अव्याकृत बताया। लोक नित्य है या अनित्य ? सान्त है या अनन्त ? आदि प्रश्नों को भी उन्होंने अव्याकृत कहा। इस कथन की परिपुष्टि संयुत्तनिकाय के मोग्गल्लानसुत्त से होती है। वत्सगोत्र परिव्राजक महामोग्गल्लान से इस प्रकार बोला मोग्गल्लान ! क्या लोक शाश्वत है ? वत्स ! भगवान् ने इसे अव्याकृत बताया है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अशाश्वत है ? वत्स ! इसे भी भगवान् ने अव्याकृत कहा है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अन्तवान है ? वत्स ! इसे भो भगवान् ने अव्याकृत बताया है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अनन्त है ? वत्स ! इसे भी भगवान् ने अव्याकृत बताया है। इस प्रकार बुद्ध ने ऐसे तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों को अव्याकृत की कोटि में रखा है क्योंकि ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जिनके विषय में एकान्तिक कथन १. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:१ ( अव्याकत संयुत्तं )। २. संयुत्तनिकाय पालि भाग-२, १२:३५ ( निदान संयुत्तं ) । ३. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:६ ( अव्याकत संयुत्तं )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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