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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
हैं। इसी प्रकार अभेद इसलिए मानना चाहिए क्योंकि संसारी जीवन में जीव और शरीर का अग्निलौह-पिण्डवत् सम्बन्ध होता है क्योंकि कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। साथ ही साथ, शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन तो होता ही है। अतः आत्मा और शरीर में अभेद सम्बन्ध भी मानना आवश्यक है। भगवतीसूत्र' में गति, इन्द्रिय, कषाय, लेश्या, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वेद ये जीव के दस परिणाम गिनाये गये हैं। ये सभी परिणाम शरोरयुक्त संसारी जीव पर लागू होते हैं। यदि जीव का शरीर से अभेद न माना जाय तो इन परिणामों को जीव का परिणाम नहीं कहा जा सकता। इस संदर्भ में स्वयं महावीर ने ही कहा है कि "हे गौतम ! मैं यह जानता है, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित जाना है और मैंने यह सर्वथा जाना है कि तथाप्रकार के रूप वाले, कर्म वाले, राग वाले, वेद वाले, मोह वाले, लेश्या वाले, शरीर वाले और उस शरीर से अविमुक्त जोव के विषय में ऐसा ही ज्ञात होता है, यथा-उस शरीर युक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धिपन या दुर्गन्धिपन, कटुपन यावत् मधुरपन तथा कर्कशपन अथवा यावत् रूक्षपन होता है। जीव के ये सारे विशेषण आत्मा और शरीर के अभेद मानने पर ही लागू होते हैं। वस्तुतः आत्मा और शरीर में भेदाभेद सम्बन्ध है। यह तथ्य निम्नलिखित संवाद से और भी स्पष्ट हो जाता है।
भगवन् ! काय (शरीर) आत्मा है या आत्मा से भिन्न ? गौतम ! काय, आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी । भगवन् ! काय रूपी है या अरूपी ? गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी।
इसी प्रकार पूर्ववत् एक-एक प्रश्न करना चाहिए। हे गौतम ! काय सचित्त भी है और अचित्त भी। काय जीव रूप भी है और अजीव रूप भी। काय जीवों के भी होते हैं और अजोवों के भो ।' इस प्रकार उक्त १. भगवतीसूत्र, भाग ५, १४:४:७ । २. भगवतीसृत्र, भाग ५, १७:२ । ३. भगवतीसूत्र भाग ५, १३:७:१३,१४ ।
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