________________
अनेकान्तिक दृष्टि का विकास की सान्तता-अनन्तता के विषय में उनका कहना है कि "द्रव्य ( दृष्टि ) से जीव एक है, ( इसलिए ) ससीम या सान्त है। क्षेत्र की दष्टि से भी जीव असंख्यात प्रदेश वाला है, ( वस्तुतः वह) असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन किये हुए है, ( इसलिए ) समीप या सान्त है । काल (की दृष्टि) से जीव नित्य है, अर्थात् ऐसा कोई समय नहीं था, न है और न होगा, जब जीव न रहा हो, यावत् जीव नित्य है, अन्तरहित है (और ) भाव ( की अपेक्षा ) से जीव के अनन्त ज्ञान-पर्यायें हैं, अनन्त दर्शन-पर्यायें हैं, अनन्त चरित्र-पर्यायें हैं और अनन्त अगरुलघु पर्याय हैं, ( इसलिए जीव ) अन्तरहित हैं। इस प्रकार द्रव्य जीव और क्षेत्र जीव सान्त ( अन्त सहित ) हैं तथा काल जीव और भाव जीव अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक ! जीव अन्त सहित भी है और अन्त रहित भी है।''
जीव और शरीर परस्पर भिन्न है या अभिन्न है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों ने दोनों ही पक्षों (भेद-अभेद) को स्वीकार कर उनमें समन्वय किया और कहा कि एकान्त भेद या एकान्त अभेद मानने पर जो दोष उत्पन्न होते हैं वे दोष उभय रूप मानने पर नहीं उत्पन्न होते । अतएव जीव-शरीर में भेद और अभेद दोनों ही पक्षों को स्वीकार करना चाहिए। भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर के नष्ट होने पर भी जीव रहता है, इसका पुनर्भव होता है। सिद्धावस्था में भी तो अशरीरी आत्मा रहती ही है। आचारांगसूत्र में मुक्तात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है, वह न कृष्ण, नील, पोत, रक्त एवं श्वेत वर्णवाला है, न दुर्गन्ध एवं सुगन्ध वाला है, न तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है, न गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत एवं उष्ण स्पर्श वाला है, न स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद वाला है अर्थात् शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विशेषणों से रहित है। इसलिए मुक्तात्मा को अपद कहा गया है।"२
इस प्रकार जैन आचार्यों के दृष्टिकोण से यदि आत्मा को शरीर से भिन्न न माना जाय तो उपर्युक्त प्रकथन सर्वथा मिथ्या और निराधार हो जायेगा । मुक्तात्मा के सभी विशेषण शरीर-भिन्न आत्मा पर ही लागू होते १. भगवतीसूत्र-भाग १, २:१ । २. आचारांगसूत्र-१:५:६:६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org