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________________ ३२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार जीव या आत्मा में जैन-दार्शनिकों ने नित्यता के साथ ही अनित्यता को भी प्रश्रय दिया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि जीव परिणामी नित्य है। इसीलिए उसमें परिवर्तन भी होता रहता है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि-'हे जमाली ! जीव शाश्वत है, क्योंकि “जीव कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा"ऐसी बात नहीं है, किन्तु “जीव था, है और रहेगा।" यावत् जीव नित्य है। हे जमाली ! जीव अशाश्वत भी है क्योंकि वह नैरयिक होकर तिर्यञ्च योनिक हो जाता है, तिथंच योनिक होकर मनुष्य हो जाता है और मनुष्य होकर देव हो जाता है।" गौतम ने भी जब महावीर से पूछा कि हे भगवन् ! नैरयिक जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? तो उन्होंने यही कहा कि हे गौतम ! जीव कश्चित् शाश्वत है और कश्चित् अशाश्वत है । इसका कारण पूछने पर पुनः उन्होंने कहा कि वह द्रव्यदृष्टि से शाश्वत है और पर्याय या भाव की दृष्टि से अशाश्वत है ।"३ ।। ___ इस प्रकार जैन विचारकों के दृष्टिकोण से लोक और जीव नित्यानित्यात्मक है, भावाभावात्मक है। अतएव वे उन्हें न तो मात्र नित्य कहना चाहते और न तो मात्र अनित्य । अपितु उन्हें नित्य-अनित्य दोनों ही कहते हैं । इसी प्रकार लोक और जीव की सान्तता-अनन्तता के विषय में भी अपना मत व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि वह न तो मात्र एक है, न तो मात्र अनेक; न तो केवल सान्त है और न तो केवल अनन्त । अपितु वह एक भी है, और अनेक भी है। वह सान्त भी है और अनन्त भी है। उनका कहना है कि लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है किन्तु वह भाव अर्थात् पर्यायों की अपेक्षा से अनन्त है। क्योंकि लोक द्रव्य की अनन्त पर्याय हैं। काल की दृष्टि में लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई भी काल नहीं था जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। लोक की इस सान्तता और अनन्तता को सिद्ध करने के लिए वे उसके चार विभाग किये हैं-द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक। इन चारों विभागों के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि लोक सान्त भी है और अनन्त भी है; एक भी है और अनेक भी है। इसी प्रकार जीव १. भगवतीसूत्र, भाग, ४, ९:३३:३४ । २. भगवतीसूत्र, भाग, ३, ७:३:१५ । ३. भगवतीसूत्र, भाग १, २:१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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