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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
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लेता है; वही आत्मवादी है, वही लोकवादी है, वही कर्मवादी है और वही क्रियावादी है ।" " आशय यह है कि जो एक से दूसरे भव में जाने वालो आत्मा को स्वीकार करेगा, वही इहलोक - परलोक को स्वीकार करेगा, उसे उनके कारणभूत कर्म को भी स्वीकार करना पड़ेगा और जो कर्म को स्वीकार करेगा उसे कर्म की कारण भूत क्रियाओं को भी स्वीकार करना पड़ेगा । क्रिया के बिना कर्म कर्म के बिना इहलोक-परलोक और इहलोकपरलोक के बिना आत्मा का स्वतन्त्र और शाश्वत अस्तित्व नहीं बन सकता । अतएव आत्मा या जीव को नित्य मानना आवश्यक है। किन्तु जैन- विचारकों ने आत्मा के नित्यत्व पक्ष को स्वीकार करने के बाद भी उसके अनित्यत्व पक्ष को अस्वीकार नहीं किया; अपितु शाश्वतवाद के साथ ही विच्छेदवाद को भी स्वीकार कर उनमें समन्वय करने का प्रयास किया । जहाँ जेन दार्शनिकों ने लोक और जीव को नित्य कहा वहीं उसे अनित्य भी कहा था । उनका यह प्रकथन निम्नलिखित उद्धरण से परिपुष्ट होता है
जब जमाली ने पूछा कि, "भगवन् ! लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ?" तब महावीर ने कहा - " हे जमाली ! लोक शाश्वत है, क्योंकि "लोक कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा" - ऐसा नहीं है । लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । हे जमालो ! लोक अशाश्वत भी है, क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है, उत्सर्पिणी काल होकर अवसर्पिणी काल होता है; अर्थात् उसमें परिवर्तन या विकास और ह्रास होता है । अतएव लोक नित्य-अनित्य दोनों है और जिस प्रकार लोक नित्य और अनित्य दोनों है उसी प्रकार जोव या आत्मा भी नित्य और अनित्य दोनों है । जहाँ द्रव्य दृष्टि से जो नित्य है वहीं पर्याय दृष्टि से जोव अनित्य भी है । चेतना का जोव से कभी विच्छेद नहीं होता है; क्योंकि वह ( जीव ) चैतन्य स्वरूप है । अतएव चैतन्य गुण की दृष्टि से भी जीव नित्य है । किन्तु उसकी अन्य पर्यायें उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं । अतएव पर्यायों की दृष्टि से जीव अनित्य है ।
१. आचारांगसूत्र - १ : १ १ : ५ ( से आयावादी, लोयाबादी, कम्मावादी, किरियावादी ) ।
२. भगवतीसूत्र, भाग ४, ९:३३:३४ ।
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