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________________ ३० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या समस्त विचारधाराओं को मिथ्या धारणायें ही कहा है। तथापि वे उन्हें तभी तक मिथ्या कहते हैं जब तक वे एकान्तिक हों; एकान्तरूप से वस्तुतत्त्व का निरूपण करते हुए अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध करती हों; किन्तु ज्योंही वे सापेक्षिक होकर अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध न करते हुए वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करती हैं त्योंहो वे सत्य हो जाती हैं।२ अतएव किसी एक पक्षीय आग्रह से सत्य का ज्ञान संभव नहीं है। सत्य के ज्ञान के लिए तो उनका समन्वय आवश्यक है। इसीलिए जैन विचारकों ने समन्वयात्मक प्रवृत्ति अपनाकर वस्तु-स्वरूप का विवेचन किया और तत्कालीन सभी प्रश्नों का उत्तर विधायक रूप से दिया। - इस प्रकार बौद्ध परम्परा में जिन प्रश्नों को अर्थहीन एवं अनुपयोगी कह कर टाल दिया गया था उन्हीं प्रश्नों से हो जैन परम्परा के दार्शनिक चिन्तन की शुरुआत होती है। इस बात का स्पष्टीकरण जैन-आगम आचारांगसूत्र से होता है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध में कहा गया है-इस संसार में कई जोवों को ऐसा ज्ञान नहीं होता कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ, या पश्चिम दिशा से आया हूँ अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ ? मैं उर्ध्व दिशा से आया हूँ या अधो दिशा से आया हूँ ? मैं किसी एक दिशा से आया हूँ या विदिशा से आया हूँ। इसो प्रकार कई जीवों को ऐपा भी ज्ञान नहीं होता कि मेरो आत्मा पूनर्जन्म धारण करने वाली हैं या पुनर्जन्म धारण करने वाली नहीं है ? मैं (पूर्वजन्म में) कौन था ? यहाँ से मरकर (आगामो जन्म में) क्या होउँगा ? आचारांग के इस प्रकथन से यह फलित होता है कि जीव को नित्यताअनित्यता आदि तात्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में चिन्तन होना चाहिए। ऐसे प्रश्नों के प्रति उदासीन रहना उचित नहीं है। उनके समाधान को ढूढ़ने का प्रयत्न करना ही चाहिए। ___ इसी ग्रन्थ में आगे पुनः कहा गया है कि "जो आत्मा को पुनर्जन्म धारण करने वाला, अतएव शाश्वत एवं स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में जान १. (अ) सूत्रकृतांग-१:१:१:२३-२५ । (ब) सूत्रकृतांग-१:१:२:१०-१३-३२ । २. विशेष जानकारी के लिये देखें, इसो ग्रन्थ में विवेचित नयवाद । ३. आचारांगसूत्र १:१:१:१-३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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