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________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता अतएव वस्तु-स्वरूप का तद्रूपतः कथन करना असम्भव है। हम जब भी उसके अभिव्यक्तीकरण का प्रयास करते हैं तब उसके आंशिक स्वरूप का ही निर्वचन हो पाता है। यही कारण है कि जैन-दार्शनिकों ने शब्द (भाषा) और अर्थ (विषय) के सम्बन्ध के संदर्भ में एक मध्यवर्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। उनकी यह मान्यता है कि सम्पूर्ण सत्य (वस्तु) का ज्ञान भले ही हो जाय किन्तु उसे उसी रूप में कहा नहीं जा सकता। वस्तु की अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास उसे सापेक्ष और आंशिक रूप में ही प्रस्तुत कर पाता है। वस्तु के संदर्भ में जो कुछ भी कहा जाता है वह वास्तव में किसी न किसी विवक्षा अथवा नय से गभित होता है। सर्वज्ञ को भी सत्य की अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है, जो सीमित एवं अपूर्ण है तथा अस्ति और नास्ति की विचार कोटियों से घिरी हई है। ऐसी अपूर्ण एवं सीमित भाषा-शैली पूर्ण सत्य का प्रकाशन कैसे कर सकती है ? अतएव ऐसी अपूर्ण एवं सीमित भाषा शैली के माध्यम से सम्पूर्ण सत्य (यथार्थता) का निर्वचन असंभव है। इसीलिए प्रभाचन्द्र ने शब्द और अर्थ के तप सम्बन्ध का खण्डन किया था। उनके दष्टिकोण से "मोदक शब्द के उच्चारण से मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती है, अतः मोदक शब्द और मोदक नामक वस्तु दोनों भिन्न-भिन्न हैं।"' अतः कथ्य वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में कथन हो ही नहीं सकता है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम सब कुछ असत्य ही कहते हैं ? क्या सत्य कथन करना संभव ही नहीं है ? आखिर वह कौन सा कथन है जो सत्य है ? इस संदर्भ में जैन-दर्शन का विचार है कि सत्य की अभिव्यक्ति निरपेक्ष न होकर सापेक्ष रूप में होती है। सत्य कथन असत्य तभी बनता है जब वह निरपेक्ष हो जाता है। अतः वस्तुतत्त्व की यथार्थता का कथन सापेक्ष रूप से ही संभव है और वही सत्य है। समन्तभद्र ने कहा है कि "निरपेक्ष अर्थात् एक-एक धर्म का कथन करने वाले जो नय हैं वे सब मिथ्या हैं । जो नय सापेक्षता को लेकर कथन करते हैं वे सम्यक् नय हैं और वही वस्तुभूत हैं तथा वही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं।" २ इस बात १. न्यायकुमुदचन्द, भाग २, पृ. ५३६. २. "निरपेक्षानयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ।” -आप्तमीमांसा, श्लो० १०८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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