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________________ ९० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या अनुसार निर्णय या कथन कथ्य की प्रतिलिपि या कथ्य का संवादी हो ही नहीं सकता। वस्तुतत्त्व जैसा है उसका वैसा कथन करना असंभव है। उन्होंने कहा है कि "बाह्य सत्ता से किसी भी कथन अथवा निर्णय की तुलना करना असंभव है। आप अपने प्रामाणिक माप को एक तख्ते के बराबर में रखकर देख सकते हैं कि उनमें संवादिता है अथवा नहीं, किन्तु आप किसी निर्णय को तथ्य की बराबरी में यह देखने के लिए नहीं रख सकते कि उनमें संवादिता है या नहीं। क्या यह कहने का कोई अर्थ है कि निर्णय तथ्य का "संवादी" होता है अथवा वह बाह्य सत्ता की "प्रतिलिपि" होती है। वास्तव में निर्णय या कथन व्यवहार में तथ्य का प्रतीक तो होता है किन्तु वह उसकी हूबहू प्रतिलिपि नहीं होती। वस्तुतः कथ्य धर्म वस्तु में जिस रूप में रह रहा है अथवा उसका जैसा स्वरूप है उसी रूप में उसका कथन करना कथमपि संभव नहीं है। हम उन्हें प्रकथन रूप प्रतीक के द्वारा अवश्य अभिव्यक्त करते हैं किन्तु यह दावा करना गलत है कि वस्तु का स्वरूप जैसा है उसका उसी रूप में अभिव्यक्तीकरण होता है। डॉ० सागरमल जैन ने इस संदर्भ में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। उन्होंने यह प्रश्न करते हुए कहा है कि "क्या इन शब्द प्रतीकों में भी अपने विषय या अर्थ की अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है ? क्या कुर्सी शब्द कुर्सी नामक वस्तु को और "प्रेम" शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है ? यह ठीक है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक अथवा संकेतक है, किन्तु क्या कोई भी शब्द अपने वाच्य विषय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम है ? क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण-धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) का एक समग्न चित्र प्रस्तुत कर सकता है ? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक नहीं है तो फिर भाषा की प्रामाणिकता या उपयोगिता संदेहात्मक बन जाती है । विन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ है और अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख. प्रस्तुत कर देता है।"२ १. दर्शन-शास्त्र का परिचय, पृ० ३८०. २. तुलसी प्रज्ञा, खण्ड ७, अंक ७-८, अक्टूबर-नवम्बर १९८१, पृ० १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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